समाज और परिवार का समायोजन सेतु है - नेतृत्व करती नारी - लोकेन्द्रसिंह कोट

आत्मकेन्द्रण के तलैयो ने जहाँ हमारी संस्कृति को प्रदूषित किया है, वहीं हमारी मानसिकता में भी संकीर्णता की जलकुंभी उग आई है। जिस ताल मेें हम आधुनिकता के कपड़े धोते है, नहाते हैं, बर्तन धोते हैं और उसी कथित आधुनिकता का पानी पीते भी है तो निश्चित रूप से बीमारियाँ तो बढ़ना ही है। हमारे अंदर के पानी ने संस्कारों की बुनियादें कच्ची कर दी हैं। आज लगभग हर बात में तनाव के साथ-साथ विश्वास का संकट समाया हुआ है। ग्रामीण अंचल में लम्बे समय से हाशिए पर रही नारी को जैसे ही मुख्य धारा में पंचायती राज के सहारे लाया गया उनके साथ भी वही विश्लेषकों, नीति निर्धारकों, चिंतकों का विश्वास ड़गमगाया हुआ था। लेकिन प्रारंभिक हिचकिचाहट के पश्चात आज उसी विश्वास को बनाए रखने में सक्षम सिध्द हुई हैं।
जहाँ एक ओर आ रही जबरन आधुनिकता, स्वच्छंदता व गुमराह स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है, वहीं आज की नेतृत्व करती नारी परिवार के तारों को आधुनिकता तथा संस्कृति के मध्य समायोजन कर बाँधने का प्रयास कर रही है। सिहोर जिले की कुर्लीकलां ग्राम पंचायत की सरपंच मैनबाई घर-घर जाती हैं, सबसे बातें करती हैं और इसी के चलते उन्हौने गांव पंचायत के विभिन्न वर्ग के लोगों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। लोगों की सामाजिक और निजी समस्याओं को धेर्यपूर्वक सुनना और फिर उनके हल की दिशा में सार्थक प्रयास करना, वहाँ के लोगों को भी लगता है कि वे एक नारी हैं इसलिए इस मुकाम पर वे पुरूषों से बेहतर सामजस्य बैठा पाती हैं। मैनबाई स्वयं बहुत ही गरीब आदिवासी परिवार से संबध्द हैं और पंचायत के चारो गांवों, कुर्लीकलां, नांजीपुर, काेंड़कपुरा और निमावड़ा के गरीबों की व्यथा समझते हुए उस दिशा में जीतोड़ प्रयास करती हैं।
समाज में नारी द्वारा किया गया विवेकशील व्यवहार समाज को न केवल श्रेष्ठता के रूप में दृढ़ आधार देता है, विभिन्न सामाजिक अंतर्विरोधों को समायोजित करते हुए संतुलित करता है, वरन् भविष्य को भी समरसता की नींव प्रदान करता है। यह नारी ही है जो इन दिनों समाज में विभिन्न संगठनों में होने वाले विमर्श/तर्क-वितर्क/वाद-विवाद को अपने ढ़ंग से ही संयोजित करती है और नवीन समाज की रचना में अपना अमूल्य योगदान देती है। होशंगाबाद जिले की बयावड़ा ग्राम पंचायत की सरपंच वैशाली परिहार एम. एससी और एल.एल.बी. की शिक्षा प्राप्त हैं तथा महिलाओं की समस्याओं को लेकर उन्हौने सराहनीय कार्य किए हैं। पंचायत की लगभग 117 एकड़ जमीन को वे ग्रामीण बाजार, मछली पालन, लघु उद्योग आदि लगाने का सोच रही हैं। उनकी निगाह में गांव में ही रोजगार उपलब्ध करवाकर शहरों की ओर होने वाले प्रव्रजनों को रोकना है।
अक्सर हम कुछ नहीं तो हर बात के लिए पश्चिम को कोस रहे होते हैं, परन्तु पश्चिम में अभी भी सब कुछ अपनी जगह बनाए हुए हैं। सिनेमा के आ जाने से नाटक कला नहीं खत्म हो गयी। टी.वी. ने सिनेमा को नहीं हड़प लिया, इलेक्ट््रानिक मीडिया ने किताबों सहित सारे प्रिंट मीडिया को निकाल बाहर नहीं किया और न ही आधुनिकता ने पुरानी संस्कृति को जार-जार नहीं किया। दरअसल, वहाँ हर चीज एक विकास क्रम में आई और संस्कार बनकर एक खास जरूरत की हैसियत से जीवन में शामिल हो गई। हर नई चीज का पुरानी चीजों के साथ समायोजन हो गया। जबकि हमारे यहाँ हर नई चीज भड़भड़ाते हुए पुरानी चीजों को रौंदती-कुचलती आई। नतीजतन हड़कंप मचता रहा। वर्तमान परिदृश्य वस्तुत: भारतीय संस्कृति का क्षरण काल है, जहाँ कर्मनिष्ठा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों में बेतहाशा गिरावट आई है। धर्म को विदू्रप बनाकर, विश्वास की दीवारों को हिलाकर, भौतिकतावाद की बढ़ती आग के तले सभी को उपभोक्तावादी सोच में उलझाकर विषयनिष्ठा से जोड़ दिया है। ऐसे में आज फिर नारी के उस योगदान की आशा प्रासंगिक हो गई है जहाँ से समायोजन का सेतु बाँधा जा सकता है।
अब मीरादेवी मिश्र को ही लीजिए। वे कोनिया कोठार ग्राम पंचायत जिला सतना की सरपंच हैं और प्रारंभ में उनकी पंचायत सचिव से नहीं बनती थी लेकिन अपनी व्यवहार कुशलता से उन्हौने सचिव को पक्ष में कर लिया और विकास के कई कार्यों को अंजाम दिया। जैसे ही छुआछूत की बात आती है तो वे स्वयं ब्राम्हण होकर भी कहती हैं, ''मैं कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में जाती हूँ और सभी वर्ग की महिलाओं के साथ बैठकर खाना-पीना करती हँ...... वर्ग भेद बनाया हुआ है और समय के साथ मिटता जाएगा।'' मीरादेवी ने इसी बात को अपने कर्मों में भी उतारा है और हरिजन बस्ती की सड़क, चबूतरे बनवाए। इसी तरह रोहाना ग्राम पंचायत की पंच रामवती भी कहती है, ''एक दलित के रूप में मुझे लोगों द्वारा नजरअंदाज किए जाने की आदत थी, लेकिन जब से मैं निर्वाचित हुई हूँ, अब वही लोग मुझसे अदब से बात करते हैं, ईश्वर ने मुझे नई राह दिखाई है और मैं भी जितना कार्य हो सकेगा उतना करूंगी और आगे मैं भी सरपंच बनना चा हूँगी।''
जिस प्रकार भोजन में संतुलन आवश्यक होता है उसी तरह हमारी महत्वाकांक्षाओं में भी संतुलन आवश्यक है, वरना अजीर्ण होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। नारी अपने प्रयासों से अपने परिवार की इन महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने का कार्य पूर्ण समझ के साथ कर सकती हैं। क्योंकि उसे सारे मसालों में संतुलन बखुबी आता है। वे ही विवेकानंद के इस नारे को सार्थक कर सकती हैं, 'उठो, जागो और उद्देश्य की प्राप्ति होने तक मत रूको।' बकसरी बाई विश्वकर्मा, नाहली ग्राम पंचायत जिला हरदा की सरपंच हैं और उनका मानना है कि वे सिर्फ इसलिए चुनाव जीत पाई क्योंकि उनके परिवार की छवि ईमानदार, योग्यतासम्पन्न और हमदर्द की थी। आज भी समाज में इन बातों के मूल्यों का जनमानस में प्रभाव है और जैसे ही विकल्प मिलता है समाज स्वयं उन्हे मुख्य धारा में लाने के प्रयास करता है। पंचायत की दूसरी महिलाओं को वे अपना उदाहरण देते हुए कहती हैं कि ''पहले मैं भी बहुत हिचकती थी, परंतु मुझे एहसास हो गया कि अगर डर हावी हो गया तो मैं कुछ भी नहीं कर पाउँगी'' और इसी के चलते पंचायत की सभाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ी है।
कुल मिलाकर नेतृत्व करती नारी को समाज की बेहतरी के लिए बहना होगा नदी की तरह। सामाजिक समागम, आपसी समझ का विचार, समस्याओं के मूल में जाने की प्रवृति, आत्मविश्लेषण, धैर्य...इन सभी छोटी-छोटी नदियों को जिस तरह से उन्हे अपनी नदी में प्रवेश दिया है वह आज अपने परिणाम दिखा रहा है। ऐसा नहीं है कि विचारगत अंतर नहीं होंगे, समस्याएँ नहीं होंगी, वे भी होंगी...नदी के दो किनारे कहाँ मिलते है एक-दूसरे से.....फिर भी, वे साथ-साथ चलते हैं, एक दूसरे के समानांतर। विभिन्न नदियों में व्याप्त अधकचरेपन की सफाई और उनके आधुनिकता के उथलेपन को मिटाने के लिए मुहीम नारी को ही मुखिया बन कर चलानी होगी तथा उन्हें अपने व समाज के जीवन में भी उतारना होगा.... ताकि हम जीवन की इस दौड़ में अधकचरे न रह जायें। बकौल शायर, ''डाले गए पत्थर इस वास्ते आगे/ठोकर से अगर होश संभल जाए तो अच्छा।''

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