अदम्य बॉबी, न कि तितली

फिल्म समीक्षा :
फ्रांसीसी क्रान्ति को आत्मसात करता हुआ (Embodying French Revolution)

अग्र मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने के परिणामस्वरूप अपने स्वयं के ही शरीर में वस्तुत: फंसे एक फ्रांसीसी लेखक पलक झपकने के रास्ते ही अपने सर्वोत्तम को प्रकट करते हैं। परिणाम में आयेी है एक आश्चर्यजनक किताब जिस पर बाद में पुरष्कृत फिल्म भी बनी : एक समीक्षा।
ऑंचल खुराना

द डाइविंग बैल एण्ड द बटरफ्लाई एक फ्रांसीसी पत्रकार, लेखक और इली मैगजीन के सम्पादक-जीन डॉमीनीक बॉबी के जीवन पर आधारित सत्य कहानी है, जिसमें उसका जीवन पलक झपकने जितने समय में ही बदल जाता है। वह अपने शरीर में ही कैद रहता है जब तक उसकी स्वयं की कल्पना उसे मुक्त नहीं करती। शीर्षक द डाइविंग बैल उसके शरीर को व्यक्त करता है जिसमें वह कैद है और तितली, विचारों की उसकी स्वतंत्रता को।
बॉबी को मस्तिष्कीय आघात हुआ और उसके अग्र मस्तिष्क की सारी गतिविधियां रूक गयी, एक तरह से निष्क्रिय हो गयी। इस स्थिति को लोकप्रिय भाषा में ताले में बन्द-लक्षण (Locked–In Syndrome) के नाम से जानते हैं जिसमें मरीज सचेत और चेतनशील तो रहता है, परन्तु पूरी तरह लकवाग्रस्त रहता है, चलने में, बातचीत करने में अक्षम। शरीर की सभी स्वैच्छिक मांसपेशियां काम करना बंद कर देती हैं। परन्तु इस लकवे से आंख की पलकों की गतिविधि अप्रभावित रहती है। कुछ मरीजों में चेहरे की कुछ मांसपेशियों को चलाने की थोड़ी सी क्षमता बची रहती है। बॉबी के मामले में, केवल बांई आंख की पलक को नियंत्रित करने का एक मात्र शरीरिक कार्य बचा हुआ था। इस बीमारी के मरीजों को बातचीत करने और हाव भाव प्रकट करने में मदद करने के लिये बहुत ही सीमित तकनीकें उपलब्ध हैं। इस बीमारी का न तो कोई मानक उपचार और न ही कोई रोकथाम उपलब्ध है।
एकमात्र उपलब्ध तरीके से ही, बॉबी ने पलक झपक-झपक कर एक पूरी पुस्तक लिखवा डाली। वह अपने दुभाषियों को सही शब्द के लिये एक बार पलक झपक कर और गलत शब्द के लिये दो बार पलक झपक कर इशारा करता और इस प्रकार एक पूरा मूल पाठ उसने लिखवा डाला। ऐसा करते समय वह कल्पना और याददाश्त के सहारे अपने शरीर से निकल जाता और दुनिया भर की सैर करता रहता। जैसा कि एक प्रसिध्द रूसी लेखक गोगोल ने एक बार लिखा कि किसी दूसरे के लिखे यात्रा वृतान्त को पढ़ कर दूर स्थानों की यात्रा करना सम्भव है। यह फिल्म उसी किताब का रूपान्तरण है जो 1997 में बॉबी की मृत्यु के दो दिन पूर्व ही छप कर आयी। इस किताब में, बॉबी ने अपने अंदर की दुनिया की अंर्तदृष्टि, अपने जीवन की दुर्दशा की व्यथा, अपने भूतकाल के बारे में जानकारियां और काल्पनिक स्थानों की अपनी यात्राओं के बारे में जोड़ा है। बॉबी का दुरूस्त मस्तिष्क पूरी तरह सक्रिय रहता है और यह पता चलता है जब वह गहराई के साथ वह अपनी परिस्थिति पर टिप्पणी करता है। ''बेहोशी के कुहासे से निकल कर ऊपर को तैरते हुए, तुम कभी भी सच्ची वास्तविकता को नहीं पा सकते। तुमको कभी भी तुम्हारे सपने खो जाने की विलासिता उपलब्ध नहीं है।''
निर्देशक जूलियन स्नोबेल ने यह फिल्म अपने पिता को समर्पित की जो मरने से बहुत डरते थे। निर्देशक मानते हैं कि वे अपने पिता को लेकर असफल रहे हैं ओर वे कभी भी उन्हें मृत्यु के डर से नहीं उबार सके। अपने इस अपराधबोध से मुक्ति के लिये यह फिल्म उन्होंने बनायी। यह फिल्म स्पष्ट रूप से उन लोगों के लिये एक आशावान स्रोत है जो किसी न किसी रूप में ताले में बंद लक्षण के शिकार हैं।
मजेदार रूप से, इस फिल्म में प्रदर्शित कुछ चरित्र इंटोनियोनी की फिल्मों में प्रदर्शित विचारों से काफी समानता रखते हैं, बल्कि एक कदम और आगे जाते हैं, जिससे जीवन को अर्थ प्रदान करने वाले विचार को गढ़ा जा सके-किसी भी कीमत पर धन कमाने का उद्यम, आधुनिक विश्व में मनुष्य का विमुखीकरण, स्मरणशक्ति की हमेशा संदेहयोग्य सच्चाइयां और व्यवस्था की विलक्षणताओं का लकवा।
बॉबी के परिश्रमी जीवन प्रयत्नों का हृदय विदारक और भावनाओं को प्रभावित करने वाला चित्रण दर्शकों के एकाग्र ध्यान को पकड़ लेता है। मानवीय संभावनाओं और आशा की ऊर्जा उन्हें अत्यंत तीव्र श्रध्दायुक्त विस्मय से भर देती है। उसकी परित्यक्त और अक्षम अवस्था अभिव्यक्ति का एक सृजनात्मक रास्ता खोज लेती है, जिसकी मदद से वह अपने दर्द कम कर पाता है। उसके शब्दों मात्र के सहारे कोई भी अनंत दूरियां हैं, वे दूरियां जो कैमरे की मदद से हम तक आ जाती हैं, तय कर सकता है। जैसा कि वह उदात्त भावना से लिखता है-
''मेरी गोता खाती हुई घंटी कम अत्याचारी हो जाती है और मेरा मस्तिष्क तितली की तरह उड़ान भरता है। कितना कुछ करने के लिये है। तुम समय और काल के अंदर टहलते हो, टियेरा डेल फ्यूगो या किंग मिदास के दरबार की यात्रा करते हो। तुम उस महिला के पास जा सकते हैं जिसे तुम प्यार करते हो, उसकी बगल में लेट सकते हो, उसके सोते हुए चेहरे को थपथपा सकते हो। तुम स्पेन में किला बना सकते हो, सुनहरी खाल को चुरा सकते हो, एटलांटिस की खोज कर सकते हो, और अपने बचपन के सपने और प्रौढावस्था की महत्वाकांक्षाए ं साकार कर सकते हो।''
यह फिल्म बहुत ही सुंदर तरीके से मानवीय सृजनशीलता की शक्ति का चित्रण करती है। जरूरी प्रेरणा और संकल्प के साथ जुड़ जाने पर यह क्या कुछ नहीं कर सकती। आखिरकार सृजनशीलता ने हमेशा मनुष्य को विपत्तियों से उबारा है-एक उर्वर निकास-एक रास्ता अपने दर्द को कम करने का दिया है।
यह कथा इस तथ्य पर भी प्रकाश डालती है कि दुर्घटनाएं और दुखद घटनाएं ऐसे समय पर होती हैं जब उनकी सबसे कम उम्मीद की जाती है। तब कोई भी अपने मस्तिष्क की और दुनिया की गलियों में भटक कर अपना रास्ता भूल सकता है। कभी कभी अपने सोये पुरूषार्थ को जगाने के लिये प्रचंड उपद्रव की जरूरत पड़ती है। निराशा के बजाय बॉबी श्रध्दापूर्ण विस्मय जगाता है क्योंकि वह सिक्के के दूसरे पहलू को देखता है, जिससे सृजनात्मक निकास दिखलायी पड़ता है जो मानवीय कष्टोें को बदलने और दुख को कम करने के योग्य उसे बनाता है। जो सारतत्व अभी तक उपेक्षित है उस पर मनुष्य का ध्यान केंद्रित हो इसके लिये कुछ दुखद घटना घटित होने की जरूरत को यह उजागर करती है। बहुधा ऐसी दुखांत घटना नायक के ध्यान में अस्तित्व से जुड़े उसके विश्वासों को वापस उस तक लाती है और कई बार उसे उन विश्वासों पर प्रश्न उठाने को मजबूर करती है।
फिल्म के कलाकारों में अत्यधिक प्रतिभाशाली कलाकारों का समूह है जो काफी कुशाग्रता से चरित्रों को खेलते हैं। सभी कलाकार फिल्म के अन्य तत्वों से पूर्ण तालमेल बैठा लेते हैं। जीन डॉमीनीक बॉबी का चरित्र मैथ्यू अमालरिक ने निभाया है। मैरी जोसे क्रोज उसके बोलचाल चिकित्सक बने हैं और एमेन्यूएल सिगनेर उसके बच्चों की मां बनी हैं। मैक्स वॉन सिडो उसके 92 वर्षीय पिता की भूमिका में हैं जो यह जानते हैं कि वे अपने बेटे को पुकारेंगे परन्तु उस आवाज को उनका बेटा कभी नहीं सुनेगा। बहुत ही सुंदर ढंग से यह भूमिका निभायी गयी है। अपने पेशे में शीर्ष पर बैठे बेटे की महत्वपूर्ण जिंदगी में घटी दुर्धटना से टूटे हुए दयालु, कमजोर और बूढ़े बाप की भूमिका। टॉम बेट्स का संगीत, लोलिता एवं पॉल कैटीलोन के पियानो ने कहानी को प्रबल भावनात्मक स्पर्श प्रदान किया है।
यह फिल्म फ्रांस में मई 2007 में आयी और यू.के. में अगस्त 2007 में। अन्य देशों में इसका सार्वजनिक प्रदर्शन होने का अभी इंतजार है। इस वर्ष के शुरू में यह केन्स फिल्म उत्सव में तकनीक ग्रांड पुरस्कार और सर्वोत्तम निर्देशक का पुरस्कार जीत चुकी है।

विकलांगता : अधिकारों को लंगड़ा बनाती

(राजीव रतूड़ी लिखते हैं कि मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा से शुरू होने वाली विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की छ: दशक पुरानी लड़ाई इस घोषणा और बाद में हुए तमाम अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों के फलस्वरूप देश में बने कानूनों के लागू न हो पाने के कारण अभी खत्म नहीं हुई है।)
भारत में फैले 700 लाख विकलांग व्यक्तियों के साथ आज भी दूसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव किया जाता है। उनके लिये अलगाव, सीमांतीकरण और भेदभाव आज भी अपवाद नहीं बल्कि आम है। प्रचलित रुख के कारण खड़ी हुई रूकावटों से रूबरू विकलांग आज भी दया और कल्याण के पात्र समझे जाते हैं और विश्व उनके सबसे बुनियादी अधिकारों को कुचलता हुआ आगे बढ़ जाता है। 1948 में मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा, जो न्याय, स्वतंत्रता और शांति सुनिश्चित करने के लिये मानव अधिकारों के पालन को जरूरी पूर्व शर्त मानती है, हो जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है।
1992 में, भारत ने एशिया और प्रशांत क्षेत्र में विकलांग व्यक्तियों के लिये समानता और पूर्ण भागीदारी की घोषणा पर हस्ताक्षर किये। यह घोषणा पीकिंग में आयोजित एशिया और प्रशांत क्षेत्र के आर्थिक और सामाजिक आयोग के सम्मेलन में अंगीकार की गयी थी। इस घोषणा ने सदस्य देशों पर अपनी प्रतिबध्दताओं के अनुसार कानून बनाने की जिम्मेदारी डाल दी और उसी के अनुसार संसद से विकलांगतायुक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा और पूर्ण भागीदारी) कानून 1995 पारित हुआ।
विकलांगता से ंसबंधित चार घरेलू कानूनों में यह कानून ऐसा है जो विकलांगतायुक्त व्यक्तियों के अधिकारों के सम्मान की बात करता है और सरकार के ऊपर उनकी पूर्ण भागीदारी के लिये सहूलियतें उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी डालता है। कानून के सभी प्रावधान सशक्तीकरण करने वाले हैं, परंतु दुर्भाग्य से, यद्यपि यह कानून लगभग एक दशक पहले पारित हो चुका है, इसका कार्यान्वयन चिंताजनक रूप से नाकाफी है। वे जो इसे लागू करने के लिये जिम्मेदार है और वे जो विकलांगता से ग्रसित हैं बहुधा इस कानून के प्रावधानों से अनजान रहते हैं।
यह कानून सात किस्म की विकलांगताओं को मान्यता देता है परंतु विभिन्न अधिकारों और एंटाइटलमेंट्स के प्रावधानों को केवल दृष्टि सम्बन्धी, सुनने और हड्डियो की विकलांगता, इसमें सेरेब्रल पाल्सी भी शामिल है, तक सीमित कर दिया गया है। यद्यपि आटिज्म और बहरापन जैसी विकलांगताओं को विकलांगता की सूची में शामिल नहीं किया गया है परंतु इस कानून के सामान्य लाभ सभी किस्म के विकलांग समूहों के लिये है।
विकलांग लोगों द्वारा अपने अधिकारों के एंटाइटिलमेंट का दावा करने में सबसे बड़ी रूकावट उनकी विकलांगता के प्रमाणीकरण का मुद्दा है। प्रमाणपत्र जारी करने वाले अधिकारियों के पास ऐसे विशेषज्ञ और जरूरी उपकरण्ा उपलब्ध नहीं होते जो विकलांगता के प्रमाणीकरण के लिये जरूरी है। परिणामस्वरूप बीईआरए परीक्षण सुविधाओं के अभाव में स्वैच्छिक परीक्षण प्रक्रिया द्वारा ही प्रमाणीकृत श्रवण विकलांगता के व्यक्ति आपको मिल जायेंगे। ऐसे व्यक्ति भी मिल जायेंगे जो प्रमाणीकरण के लिये एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक दौड़ते रहते हैं। मानसिक विकलांगों के प्रमाणीकरण के लिये कोई स्तरीय प्रक्रिया मौजूद नहीं मिलेगी क्योंकि अस्पतालों में मानसिक चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक नहीं हैं। प्रमाणीकरण प्रक्रिया को सरल करने और विकलांगता प्रमाणपत्र जारी करने की एकल खिड़की व्यवस्था बनाने की तत्काल आवश्यकता है।
यह कानून लिंग तथस्थ है। विकलांगों के मानव अधिकारों की रोशनी में विकलांगतायुक्त व्यक्ति कानून (पीडब्लूडी एक्ट) के तहत विकलांगों को मिले अधिकारों की समीक्षा की आवश्यकता है। हालांकि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक अधिकारों को तो इस कानून के अंतर्गत एक सीमा तक मान्यता मिली है, सांस्कृतिक अधिकारों के बारे में इसमें नहीं सोचा गया है। प्रत्येक विकलांग व्यक्ति सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी करने, खेल और मनोरंजन गतिविधियों में शामिल होनें और मीडिया तथा प्रसार तक पहुंच बनाने के लिये अधिकृत है।
नागरिक और राजनीतिक अधिकार भी विकलांगतायुक्त व्यक्ति कानून (पीडब्लूडी एक्ट) के दायरे में नहीं लाये गये हैं। विकलांगता वाले सभी व्यक्तियों को अधिकार है कि उनकी कानून तक समान पहुंच हो, अमानवीय और निर्दयी व्यवहार से मुक्ति हो, संगठन बनाने की स्वतंत्रता हो, बोलने की आजादी और सूचनाओं तक पहुंच हो, शादी करने और परिवार बसाने का अधिकार हो और राजनीतिक तथा सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने की स्वतंत्रता हो।
विकलांग व्यक्तियों के राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का बहुधा हनन होता है। उन्हीं के लिये बनाये गये संस्थानों में उनके साथ निर्दयतापूर्ण और अमानवीय व्यवहार होता है। बहरे व्यक्तियों के चूंकि भाषागत अधिकारों को मान्यता नहीं दी गयी है और जिस भाषा को वे समझते हैं उस भाषा में उन्हें जानकारियां मुहैया नहीं करायी गयी हैं, लिहाजा उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं मिल पाता। यहां तक कि कई बार तो उन्हें विवाह करने और घर बसाने का अधिकार भी नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा मान लिया जाता है कि गंभीर विकलांगता वाला व्यक्ति विवाह करने और घर बसाने में अक्षम है। अक्सर ऐसी महिला से उसके बच्चे को भी अलग कर दिया जाता है जो दोषपूर्ण मानसिकता की होती है और ऐसी मानसिकता के व्यक्ति को राजनीतिक पद प्राप्त करने और वोट डालने तक का अधिकार नहीं दिया गया है।
इस कानून के कई अभिवन्दनीय प्रावधानों के पहले 'अपनी आर्थिक क्षमताओं की सीमाओं के अंदर' जैसे शब्द जोड़ दिये गये हैं। क्या सरकार इन शब्दों को कुछ भी न करने का बहाना बना सकती है ? पीडब्लूडी एक्ट को प्रभाव में आये 12 वर्ष बीत चुके हैं और इन वर्षों में विकलांग व्यक्तियों को ट्रांसपोर्ट, रोड और निर्मित पर्यावरण में रूकावट मुक्त स्थान उपलब्ध कराने के लिए किसी प्रकार के बजटीय प्रावधान नहीं किये जा सके हैं। यह भी निहायत जरूरी है कि शिकायत निवारण प्रावधानों को और मजबूत किया जाय। यह देखा गया है कि मुख्य आयुक्त-विकलांगता के आदेशों का भी पालन बहुधा नहीं होता है और उनके आदेशों को लागू कराने के लिये उच्च न्यायालयों की शरण में जाना पड़ता है। इस आयोग को उसी तरह की शक्तियां प्रदान करने की आवश्यकता है जो शक्तियां अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग को और महिला आयोग को मिली हुई है। कानून के प्रावधानों की उलंघनीयता की स्थिति में सजा का प्रावधान होना बहुत ही जरूरी है।
मार्च 2007 में अंतिम स्वरूप में आया, विकलांगता युक्त व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका लक्ष्य वैश्विक स्तर पर विकलांग व्यक्तियों के सम्मान और अधिकार की हिफाजत करना है। 21वीं शताब्दी की पहली मानव अधिकार कन्वेंशन होने के नाते यूएनसीआरपीडी विकलांग व्यक्तियों के प्रति बदलती सोच और रूख को दर्शाता है।
2 अक्टूबर 2007 को भारत इस कन्वेंशन को स्वीकार करने वाला छठा देश बन गया है और जब 20वाँ देश द्वारा यह स्वीकृत होगी तब भारत को अपने कानून तदनुसार बदलने होंगे जिससे वे कन्वेंशन के प्रावधानों से मेल खा सके। इसके बाद भारत में विकलांग व्यक्तियों के मानव अधिकारों की रक्षा करने वाले प्रावधानों को लागू करने का सच्चा संघर्ष शुरू होगा।
इस पृष्ठभूमि में काम्बैट लॉ का विकलांगता को समर्पित यह विशेष अंक ह्यूमन राइट्स ला नेटवर्क के सहयोग से निकालने का सोचा जा रहा है।
(ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क विकलांगता पर कार्य करता है और सभी विकलांगता समूहों को आवाज उठाने के लिये प्लेटफार्म उपलब्ध कराता है और काम्बैट ला के विशेष अंक के साथ इस प्रयास का एक हिस्सा है। हमने सभी समूहों को उचित प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है जिससे वे अपनी चिंता के विषय उठा सके जैसा कि आने वाले लेखों में प्रतिबिंबित होता है। इस लेख के लेखक डिस्एबिलिटी राइट्स इनीशियेटिव ह्यूमन राइट ला नेटवर्क नई दिल्ली के नेशनल डायरेक्टर हैं।)

अधिकारों के लिए उठे कदम - राकेश मालवीय, भोपाल

बड़वानी, गर्मियों में यह जिला सबसे ज्यादा तापमान के कारण चर्चा में रहता है और बाकी समय गरीबी, भूख, कुपोषण से हो रही मौतों के कारण। इसकी थाती पर नर्मदा का पानी है और सिर के चारों ओर उंचे पहाड़ भी। लेकिन विकास की अवधारणाएं यहां के वांषिदों के लिए ठीक उल्टी ही साबित हो रही हैं। इसलिए अपने अधिकारों के लिए सबसे ज्यादा आवाज और संघर्ष के नारे भी यहां से सुनाई देते हैं। चाहे नर्मदा की लड़ाई हो अथवा रोजगार गारंटी स्कीम में काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने की मांग। इसी बीच लोगों की अपनी छोटी-छोटी कोषिषें भी हैं जो उन्हें अखबार की सुर्खियों में ला देती हैं। मामला चाहे पर्यावरण के लिए अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन का हो अथवा स्वास्थ्य के लिए आदिवासी महिलाओं की जागरूकता का। झमाझम बारि में भी इस जिले के लोग उटकर मोर्चा संभालते हैं और तहसीलदार से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं।

आदिवासी मुक्ति संगठन सेंधवा के विजय भाई से बस के सफर के दौरान ही इस क्षेत्र के हालात पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई। कयास यह भी लगाए गए कि बारिश के चलते शायद बहुत लोग मोर्चे में न आ पाएं। सोचा भी यही था ब्लॉक के सबसे बड़े अधिकारी को ज्ञापन सौंपने के बाद घंटे दो घंटे में कार्यक्रम तय हो जाएगा। आदिवासी कार्यकर्ता सुमली बाई और मुकेश भी सबसे पीछे की सीट पर बैठे थे। सेंधवा से तकरीबन दो घंटे की यात्रा के बाद बस जहां रूकी वहीं से मोर्चा शुरू होने वाला था। यह पानसेमल ब्लॉक है। इस जबरदस्त बारिश में भी तकरीबन आधा किलोमीटर लंबी लाइन। हर व्यक्ति के हाथ में बारिश से बचने के लिए छाता, किसी के पास वो भी नहीं और कहीं एक ही छातों के नीचे दो आदमी, सबसे आगे महिलाओं का हुजूम, सड़क के दोनों तरफ अनुशासित लाइन, लेकिन आवाज में पूरा जोषो-खरोश, बीच में एक हाथठेले पर माइक लगाकर नारों को बुलंदी दी जा रही थी। कस्बाई बस्ती की विभिन्न गलियों में लोग अपने-अपने घरों से इस मोर्चे को देख रहे थे, छोटे बच्चों को भले ही पता नहीं हो यह हो क्या हो रहा पर कुछ अलग होता देख वह भी उत्साह से नारों को दोहरा रहे थे। मोर्चा ब्लॉक ऑफिस के सामने एक सभा में तब्दील हो गया था। संचालन की कमान उत्साही कार्यकर्ता राजेश के हाथों में थी। ब्लॉक के विभिन्न हिस्सों से आए लोगों ने अपनी बोली में अपने मुददों को अपने लोगों के सामने बारी-बारी से रखा। राखी बुर्जुआ गांव में पांच महीने से पेयजल का संकट था, इसी गांव की एक महिला को रोजगार गारंटी के तहत काम मांगने पर सचिव ने जलील किया तो धुस्सोबाई के पति के देहांत के बाद दो साल से वाजिब हक के लिए भटक रही है। और तो और उसका नाम गरीबी रेखा की सूची तक में नहीं है। न उसे राष्टीय परिवार सहायता के तहत कोई सहायता मिली। सिर पर छह बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी लेकिन दो साल के बेटे राकेश को वह साथ लिए घूम रही थी, उसे देखकर कोई भी कह सकता है कि उसे भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो रहा। धुस्सोबाई ने बताया कि उसे आंगनबाड़ी से भी किसी तरह का आहार नहीं मिल रहा। केवल धुस्सोबाई ही नहीं शासन द्वारा कराए गए बाल संजीवनी अभियान में इस जिले में 93376 बच्चे कुपोषित पाए गए थे और इसमें भी 975 बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार थे।

सबके अपने सपने थे लेकिन उनके आड़े प्रशासनिक जवाबदेहिता और भर्राशाही के संकट। इसी संकट से उनकी यह लड़ाई जारी भी थी। घड़ी का कांटा चार बजे के पार हो गया था। मोर्चे के दूसरी तरफ तहसीलदार महोदय आ चुके थे। बारिश के बावजूद उनके सिर पर छाता नहीं था न कोई दूसरा इंतजाम। उनके सामने मांगों का पर्चा पढ़ा गया। गौर से सुनने के बाद अब बारी उनकी थी। लेकिन इस बार मामला केवल आष्वासन से संभलने वाला नहीं था। एक-एक बिंदु पर बारी-बारी से सवाल-जवाब की मांग थी। कुछेक बिंदु सुलझा लिए गए। उन्हें शायद अंदाजा नहीं था मई में मोर्चे के बाद यह कार्यकर्ता इस बार इस तैयारी और हौसले के साथ आएंगे।

तहसीलदार महोदय के एक अदने कर्मचारी ने थोड़ी अषिष्टता दिखाई तो कुछ ही मिनट में लोग मुख्य सड़क पर जा बैठे। लगभग एक घंटे यातायात लोगों की जिद के आगे बंद था। चर्चा फिर शुरू हुई। मोबाइल फोन पर कलेक्टर महोदय से बातचीत हुई। शाम ढल चुकी थी बातचीत का दौर जारी था। तय हुआ कि लिखित में आष्वासन मिलने के बाद ही मोर्चा खत्म होगा। इस बीच लगभग पच्चीस महिलाएं गांव जाने की तैयारी में टैक्टर पर ही बैठी थीं। एक कार्यकर्ता ने बातचीत में बताया घर पहुंचने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम क्या लेकर लौटे हैं। तहसीलदार महोदय सारी मांगों के जवाब और संबंधित विभागों के नाम पत्र जारी करने के उपक्रम में नौ बजे तक एक टायपिस्ट और अमले के साथ बैठे थे। मोर्चा खत्म हो गया था। लेकिन इस बार लोगों के चेहरों पर खुशी के भाव प्रगाढ़ थे क्योंकि हर बार की तरह उन्होंने केवल कोरा आष्वासन नहीं लिया था।

मोर्चे में शामिल सुमली बाई केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से शामिल नहीं थी। उसकी एक और पहचान है। डॉक्टरनी बाई की पहचान। सुमली बाई भले ही पढ़ी-लिखी न हो पर उसे पता है बुखार में पैरासिटामोल दी जाती है और अपनी सेहत को दुरूस्त रखने के लिए क्या करना चाहिए। केवल सुमली बाई ही नहीं बड़वानी में ऐसी 26 आदिवासी महिलाएं हैं जो स्वास्थ्य चेतना और छोटी-मोटी बीमारियों में दवा देने का काम कर रही हैं। एक गैर सरकारी संस्था सेहत ने इन महिलाओं को प्राथमिक इलाज के लिए लगातार प्रषिक्षण दिया है। इन महिलाओं के पास दवाओं का एक झोला होता है। दवाओं के रंग, आकार और नाम से यह दवाओं को पहचान लेती हैं।

लगभग छह साल शुरू हुआ यह प्रयोग इतना कारगर साबित हुआ है कि पहले जहां इन आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य पर लोगों का प्रतिव्यक्ति खर्च 136 रूपए था वहीं दूसरे सर्वे के बाद यह महज 35 रूपए के आसपास ठहर गया। सेहत के मकरंद और संतकुमार ने बताया कि महिलाओं को इलाज के लिए प्रषिक्षण देना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन महिलाओं की मेहनत से यह आसान हो गया। पहाड़ी गांवों से छोटी-मोटी बीमारियों में भी इन्हें कई किलोमीटर चलकर आना पड़ता था। महाराष्ट सीमा से सटे गांव पीपरपुल, बल, आंवली, बुडडी, सोरियापानी सरीखे कई गांवों की महिलाओं ने इसमें हिस्सा लिया। इनके उत्साह को इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रंषिक्षण के लिए आने-जाने का खर्च भी इन महिलाओं ने ही उठाया और दवाओं के लिए कई बार आपस में चंदा भी किया। आदिवासी इलाकों में जड़ी-बूटियों से इलाज की एक समृदध परंपरा भी रही है। इस प्रयोग के दौरान ऐसी जड़ी-बूटियों को भी चिन्हित कर उपयोग किया गया। इससे आदिवासियों को सस्ता इलाज मिलना शुरू हो गया। सरकार ने भी महिलाओं की गंभीरता को समझा और कुछ स्वास्थ्य साथियों की नियुक्ति आशा कार्यकर्ता के रूप में की। जिले की मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डा लक्ष्मी बघेल कहती हैं कि आदिवासी इलाकों में इलाज के लिए यह अपनी तरह का एक प्रयोग है। हमने स्वास्थ्य विभाग के निर्देश पर ही इनमें से कुछ को आशा कार्यकर्ता के रूप में नियुक्ति दी है।

कुपोषण के लिए चर्चा मे रहा पाटी ब्लॉक बड़वानी से एक घंटे की दूरी पर है। यहां से महज छह किलोमीटर दूर लिंबी और लगभग 11 किलोमीटर दूर गुडी गांव के वाषिदें अब विकास को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं। इन्होंने समझ लिया है कि अपनी आजीविका के लिए अपने संसाधनों को विकसित करना होगा। इसके लिए इन्होंने अपने बंजर पहाड़ों पर हरियाली लाने का संकल्प लिया है। लिंबी गांव में लगभग 12 हेक्टेयर जगह में आठ हजार पौधे रौपे जा चुके हैं। वहीं दो हजार की आबादी वाले गुडी गांव में तो लोगोें ने अपने लगाए गए पौधे की रक्षा के लिए एक चौकीदार भी तैनात किया है। बड़ी बात यह है कि लोग आपस में चंदा करके उसकी पगार का इंतजाम करते हैं।
लिंबी गांव के निवासी वालसिंह ने बताया कि हमारे इलाके में पहाड़ों पर कुछ नहीं होता। उल्टे इनमें मिटटी का कटाव होता है और गर्मी में यह गर्म हो जाते हैं। बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि कभी यहां भी बहुत हरियाली हुआ करती थी लेकिन धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। इसके लिए हमने गांव की ग्राम पंचायत में पहाड़ों पर आपसी प्रयासों से पेड़ लगाने का प्रस्ताव रखा। सभी की सहमति बनी और जनपद पंचायत के माध्यम से पेड़ भी मिल गए। गुड़ी गांव के बलराम बताते हैं कि जंगल से जीवन है, हमने समझ लिया है कि जंगल बचेगा तो हम भी बचेंगे। इसलिए अब हमारी कोषिश यही है कि किसी भी तरह यहां पिफर से हरियाली आए। इस काम में महिलाएं भी बराबरी से हिस्सेदारी कर रही हैं। बड़वानी की सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी बताती हैं कि यहां की बड़ी समस्या मजदूरी के लिए पलायन करने की हैं। इसका बड़ा कारण इनके अपने संसाधनों का खत्म होना है लेकिन अब इन आदिवासी महिला और पुरूषों की आंखों में एक अलग तरह का सपना पल रहा है और इसके लिए इनकी जमीनी कोशिश भी काबिले तारीफ है। जनपद पंचायत के अतिरिक्त कार्यपालन अधिकारी नीलेश पारिख ने भी इन लोगों के सपने को समझा और पंचायत की तरफ से मांग के मुताबिक पौधे उपलब्ध करवाए हैं। कहते हैं कि यदि पहाड़ों पर हरियाली आ गई तो बहुत सारी समस्याएं स्वत: ही हल हो जाएंगी।

-एई 115, राजीव नगर बायपास रोड, भोपाल
मोबाइल -9303244301
फैलो- विकास संवाद, भोपाल

माया महाठगिनी - शाहनवाज़ आलम

20 मार्च 1927 को डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने हजारों 'अघूतों' के साथ महार के एक 'प्रतिबन्धित' तालाब से पानी पीकर इतिहास को एक नयी दिशा दी थी। लेकिन जब वो ऐसा कर रहे थे तब शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि 40 साल बाद उन्हीं के नाम पर वोटों की ठगी करके सत्ता में आने वालों के शासनकाल में भी दलितों के लिए सार्वजनिक तालाब 'प्रतिबन्धित' रहेंगे।
हम बात कर रहे हैं मिर्जापुर मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर स्थित भुड़कुड़ा गाँव की। जहाँ संविधान और उसके न्यायालयों के फैसलों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। जहाँ आजादी के 60 साल बाद भी मनुवादी ढाँचा जस का तस बना हुआ है। जहाँ आज भी दबंगो द्वारा दलितों को सार्वजनिक तालाबों के इस्तेमाल पर 'प्रतिबन्ध' लगाया जाता है, जिसके कारण दलितों को बूँद-बूँद के लिए भी दूर तक भटकना पड़ता है। तालाब के किनारे स्थित इस दलित बस्ती में सामन्ती फरमानों के आगे जिन्दगी कैसे रेंगती है इसका अनुमान आप बस्ती के ही राम सहाय कें इस बात से लगा सकते है, 'साहब! हम पानी के पास रहकर भी प्यासे रहते हैं। हम पानी को देख तो सकते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते'।
घटना की पृष्ठभूमि बताते हुए गाँव के लोग कहते हैं कि पूरा मामला मजदूरी के पैसों को लेकर शुरू हुआ। पिछले साल दिसम्बर में गाँव के दबंग कुर्मियों ने अपनी बकाया मजदूरी माँगने पर मन्जू नामक दलित महिला की पिटाई कर दी थी। जिस पर दलितों ने पुलिसों में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की। पुलिस ने रिपोर्ट तो दर्ज नहीं की उल्टे मन्जू और उसके पति रामवृक्ष भारती को डाँटकर थाने से भगा दिया। इधर, दबंगों को जब पता चला कि दलितों ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत करने की जुर्रत की तो वे तिलमिला उठे। उन्होंने गाँव के प्रधान शशीलता के पति अवधेश सिंह पटेल के साथ मिलकर एक मात्र तालाब जिस पर, पूरी दलित बस्ती निर्भर थी, को कँटीले तारों से घेर कर दलितों को प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया।
प्यास से मरते दलितों ने जब मजबूरन आन्दोलन का रूख किया तब राजनीतिक दल भी अपने मुखौटे उतारने पर मजबूर हो गए। रामराज की बात करने वाली भाजपा और दलितराज की पैरोकार बसपान दोनों ने अपने 'सैध्दान्तिक' मतभेद भुलाकर दबंग कुर्मियों के पक्ष में खड़ा होना ही फायदेमंद समझा।
क्षेत्र के रसूखदार भाजपा विधायक और विधानसभा में पार्टी के उपनेता ओमप्रकाश सिंह जहाँ शुरू से ही अपने सजातीय दबंगों के पक्ष में सक्रीय थे। तो वहीं दलित वोट बैंक को हर हाल में पक्का मानकर कुर्मियों में भी बंटवारा करा ले जाने की मंशा से बसपा प्रत्याशी रमेश दुबे भी उनके साथ खड़े हो गए। इस 'आम सहमती' की हद तो तब हो गयी जब इस पूरे मामले पर दलितों द्वारा 1 मार्च को पहले से घोषित प्रदर्शन के खिलाफ आयोजित कुर्मियों की सभा में दोनों ने एक साथ दलितों को सबक सिखाने का आहवान किया। बस्ती के राम सूरत भारती बताते है ''भाजपा तो यहाँ शुरू से ही दबंगों के साथ थी लेकिन बसपा नेता से हमें ऐसी उम्मीन नहीं थी। आखिर बहन जी को तो हमारा ही वोट मिलता है ना''।
इसी बीच इस मसले पर मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमेन राइट्स (पी0यू0एच0आर0) की तरफ से संगठन के संयोजक शरद मेहरोत्रा ने इलाहाबाद हाई कोर्ट मे रिट (संख्या- 18475, पी0यू0एच0आर0 बनाम उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य) दायर कर दी। जिस पर सुनवाई करते हुए 9 अप्रैल को न्यायमूर्ति रफत आलम और राकेश शर्मा की बेंच ने घटना को अमानवीय और स्तब्ध करने वाला बताते हुए तत्काल तालाब से घेराबन्दी हटाने और दलितों को पानी उपलब्ध कराने का आदेश दिया।
कोर्ट का आदेश आ जाने के बाद गाँव के दलितों में उम्मीद जगी कि वे एक बार फिर तालाब का पानी इस्तेमाल कर सकेंगें। यह उम्मीद इस ठोस बुनियाद पर टिकी थी कि फैसला आने के महीने भर बाद ही एक दलित की बेटी मुख्यमन्त्री बनने जा रही थी। लेकिन 13 मई को मायावती के सत्ता में आने के बाद भी कोर्ट के आदेश पर कोई कार्यवायी नही हुयी और तालाब दलितों के लिए 'निषिद' बना रहा। इस मुद्दे पर 28 दिनों तक भाव हड़ताल पर बैठने वाले भाकपा (माले) नेता रामकृत बियार कहते हैं 'मायावती के लिए अम्बेडकर द्वारा रचित संविधान और न्यायालयों के फैसलो का कोई मतलब नहीं है। वो सिर्फ अम्बेडकर के नाम पर वोट लेना जानती है।'
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब दबंगों ने तालाब को कंटीले तारों से घेरने की वजह तालाब के किनारे लगे पौधों की सुरक्षा करना बताया। दलित बस्ती के ही रामसूरत भारती बताते हैं 'फैसला आने के बाद दबंगों ने रातों-रात आस-पास के बागीचों से कई छोटे-बड़े पौधे काटकर तालाब के किनारे गाड़ दिया। जिसे उन्होंने महीनों बाद मुआयने पर आए अधिकारियों को भी दिखाया। मायाराज के चुस्त-दुरूस्त प्रशासनिक अधिकारी इन मुर्झाए और गिर चुके पौधों की सुरक्षा के उपाय देखकर गदगद हो गए। हालांकि, मौजूदा समय में इन 'पौधो' के अवशेष भी सड़-गल चुके हैं लेकिन प्रशासन अभी भी यही तर्क दे रहा है कि ऐसा दलितों को रोकने के लिए नहीं बल्कि पौधों की सुरक्षा के लिए किया गया है।

फिलिस्तीन की पीठ-लोकतंत्र का नक्शा

फिलिस्तीन जमीन से ज्यादा एक जज्बा है। आजादी की एक ऐसी जंग जो आज भी जारी है। फिलिस्तीन दुनिया के बादशाहों की बिगड़ैल फौज के आगे निहत्थे मुट्ठी तानकर खड़े हो जाने के साहस का भी नाम है। आजादी-पसंद फिलिस्तीन को फिलहाल दुनिया के बादशाहों ने अपनी शतरंजी चालों से घेर दिया है और फिलिस्तीन में लोकतंत्र रोज लहूलुहान हो रहा है। शहादत की इस धरती पर राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का कठिन सवाल एक बार फिर सामने है। एक बँटे-छँटे फिलिस्तीन का नक्शा खींचकर उस पर डिजायनर लोकतंत्र का 'मेड इन अमेरिका' स्टीकर लगाने की कवायद तेज हो गई है। इस कवायद के मकसदों पर सवाल उठाता आलेख।

चंदन श्रीवास्तव

पिछले माह दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह ईद का मुबारक चाँद पेट्रोलियम से लबरेज मधय-पूर्व की धरती पर भी चमका। हमेशा की तरह मुरादों और मन्नतों से भरे हाथ दुआ में उठे। इनमें दो हाथ इरान के सर्वोच्च धर्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी के भी थे। इरान अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर लोकतंत्र के खुदमुख्तार और दरोगा बने मुल्कों की टेढ़ी नजरों में है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में उसके खिलाफ पाबंदी लगाने की अमेरिकी कवायद अपने चरम पर है। बस रूस और चीन अपने-अपने वीटों के दम पर अमेरिका की बादशाहाना चालों को मकसद तक नहीं पहुंचने दे रहे। अमेरिका अब तक इरान के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार पर अपनी तरफ से कई पाबंदियों का एलान कर चुका है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जरा सोचें कि अयातुल्लाह खुमैनी ने ईद के रोज नमाज अदा करके क्या दुआ माँगी होगी?
खुमैनी ने इरान की तरफदारी में कम और अमेरिका की मुखालफत में ज्यादा कहा होगा- इसका तो कयास लगाया जा सकता है। लेकिन, खुमैनी ने इरान से दूर बसे फिलिस्तीन का सवाल उठाया और फिलिस्तीनियों के हिफाजत की अपील की-आखिर क्यों? पहली नजर में यही लगेगा कि धर्मिक राज्य की अपनी छवि के अनुकूल इरान इस्लाम का झंडा बुलंद कर रहा था और ऐसा करके वह इस कानफोड़ू अमेरिकी प्रचार को ही स्पष्ट कर रहा था कि अपफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिजबुल्लाह और फिलिस्तीन में हमास की 'काली करतूतों' के पीछे इरान का हाथ है। आखिर विश्वव्यापी आतंकवाद को लगातार साबित करते
रहने के लिए उसका कोई चेहरा होना चाहिए और क्या ही बेहतर हो कि अमेरिका को 'विश्वव्यापी आतंकवाद' का बेनकाब चेहरा इरान और खुमैनी के रूप में मिल जाय।
आखिर 'सभ्यताओं
के संघर्ष' में अगर एक तरफ अमेरिका और उसके साथी मुल्क हैं तो दूसरी तरफ अपनी सेना सजाए कोई और भी
तो नजर आना ही चाहिए। अमेरिका के हिसाब से परमाणु बम बनाने पर तुला इरान ऐसा ही प्रतिपक्ष है। चालू मुहावरे से बाहर निकलकर सोचे तो तस्वीर कुछ अलग ही नजर आएगी। इस तस्वीर में दिखेगा घायल होता लोकतंत्र-एक ऐसा मृगछौना जिसको बचाने के नाम पर दरअसल अमेरिका चौतरफा हाँक लगाए दौड़ रहा है- कहीं कूटनीति से, कहीं फौजी बूटों से तो कहीं डॉलर के जोर से वह हर उस जगह हाजिर होने पर उतारू है जहाँ या तो पेट्रोलियम हो या अमेरिकी कारोबार के लिए खुला बाजार हो।
विडंबना यह है कि जहाँ-जहाँ लोकतंत्र होगा वहाँ-वहाँ अमेरिका के लिए बाजार होगा के इस व्याकरण को समझता हर मुल्क है लेकिन बोलने की हिमाकत इरान जैसा मुल्क ही करता है जहाँ लोकतंत्र अब भी दूर की कौड़ी है। ईद के रोज खुमैनी फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के लोकतांत्रिक अधिकार की आवाज बुलंद कर रहे थे जबकि खुद इरान में लोकतंत्र की सेहत
मरी-मरी सी है।
बहरहाल, खुमैनी ने ईद के रोज फिलिस्तीन के बहाने आज की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को मथता एक गहरा नैतिक सवाल उठाया। सवाल यह कि जब कोई और चारा न हो तो दो में से कौन सा रास्ता चुना जाय- लोकतंत्र या राजनीतिक आजादी? गुलाम होकर लोकतांत्रिाक राजव्यवस्था में रहना बेहतर है या किसी एक सामूहिक पहचान के साथ आजाद रहना भले ही उस
सामूहिक पहचान की बुनियाद अलोकतांत्रिक हो? तनिक सरल शब्दों में कहें तो मामला राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का है। जब दोनों आमने-आमने हों तो किसे चुना जाय? अमेरिका का चमत्कार यह है कि उसने लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के तीसरे विकल्प को अब विश्वव्यापी लोकतंत्र की अपनी मुहिम में एकदम किनारे कर देने में सफलता पायी है।
फिलिस्तीन की आषादी के मसले पर चलने वाली अमेरिकी कारगुजारियों में इसे साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। खुमैनी ने ईद के रोज इस्लामी मुल्कों से आह्वान किया कि वे फिलिस्तीन के मसले पर न्यूयार्क में आहूत शांति सम्मेलन में शिरकत न करें। पिछली
सोलह जुलाई को बुश ने घोषणा की थी कि साल के अंत तक न्यूयार्क में एक अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन किया जाएगा और मधय-पूर्व में शांति-प्रक्रिया की बहाली की कोशिशें फिर की जाएंगी। षाहिर है, बुश का इशारा अरब-इजराइल संबंधों के इतिहास को फिलिस्तीन की पीठ पर दुबारा लिखने की तरफ था।
बुश की यह घोषणा एक तरफा थी। मधय-पूर्व के तीन अन्य बड़े महारथियों यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ और रूस से उसने शांति-सम्मेलन करवाने के बारे में पूछा तक नहीं। बुश की घोषणा मानो एक अल्टीमेटम थी कि इस सम्मेलन में वही आएँ जो
फिलिस्तीन राष्ट्र के गठन को लेकर उसके मंसूबों पर मुहर लगाने को तैयार हों और इषराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता देते हों। खुमैनी ने यहीं सवाल खड़ा किया- उनका कहना था कि अगर फिलिस्तीन खुद इस सम्मलेन में नहीं आ रहा तो बाकी
मुल्क क्यों आएँ और सम्मेलन के फैसले को केसे जायज ठहराया जाए?
इरान को लगता है कि शांति-सम्मेलन में फिलिस्तीन नहीं आ रहा। अमेरिका कह रहा है कि फिलिस्तीन का फैसला फिलिस्तीनी नुमाइंदों की सहमति से होने जा रहा है- इस उलटबासी में सफेद क्या है और स्याह क्या? कौन है फिलिस्तीनी लोगों का नुमाइंदा? क्या फिलिस्तीनी लोगों के बिना फिलिस्तीन पर लिया गया कोई फैसला लोकतांत्रिक होगा?
बुश ने मधय-पूर्व के सत्ता-समीकरण नए सिरे से लिखने के इस एलान के साथ आनन-फानन में सऊदी अरब, जार्डन और मिस्र के शासकों से फोन पर संपर्क साध।
जार्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर कायम महमूद अब्बास के शासन को उसने 19 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद देने की घोषणा की। 8 करोड डॉलर अलग से भी मिलेंगे अब्बास सरकार को। यह अतिरिक्त रकम फिलिस्तीनी हक के लिए लड़ रहे हिंसक संगठन 'हमास' के पर कतरने के लिए ख़ास तौर से दिए जा रहे हैं। अमेरिका एक ओर फिलिस्तीन के सवाल पर अरब मुल्कों को एक रस्से में नाथना चाहता है और दूसरी ओर अपने कठफतले महमूद अब्बास के सहारे बाकी मुस्लिम बहुत
देशों को। अब्बास इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इंडोनेशिया के दौरे पर है।
मकसद साफ है कि सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया सम्मेलन में शिरकत करे इजराइल को मान्यता दे और फिलिस्तीन के उस नक्शे पर चुपचाप दस्तखत कर दे जिसकी रेखाएँ अमेरिका खींचने जा रहा है। आइए देखें कि फिलिस्तीन में
आजादी और लोकतंत्र के तार किस तरह उलझे हैं और किस चालाकी से उन्हें सुलझाने की कसरत हो रही है।
अमेरिका और इषराइल के लिए फिलिस्तीन की मौजूदा हालत मुनाफे का मनचाहा मौका है। गाजापट्टी पर काबिज संगठन 'हमास' और पश्चिमी किनारे पर कायम 'फतह' की सरकार के बीच खूनी जंग छिड़ी हुई है। दो बिल्लियों के इस झगड़े में पंच की भूमिका निभाने उतरे बंदरों को फायदा तो होना ही है। 'हमास' और 'फतह' नाम के दो फिलिस्तीनी गुटों के इस झगड़े में गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे के बीच एक अघोषित सीमा रेखा खिंच गई है। अमेरिका और इषराइल ऐसे में अपने-अपने सियासी मकसदों को साधने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। अब्बास महमूद के नेतृत्व वाली फतह की सरकार के रूप में दोनों को अपना वफादार प्यादा मिल गया है।
दोनों अपने सियासी एजेंट राष्ट्रपति अब्बास और प्रधानमंत्री सलाम फैयद को एक से बढ़कर एक नजराने पेश कर रहे हैं- साथ ही 'हमास' के गढ़ गाजापट्टी पर शिकंजा कसा जा रहा है ताकि वह पूरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाय। जरूरी चीजों की आपूर्ति तक रुक जाय और गाजापट्टी के बाशिन्दे दम तोड़ दें।
सिर्फ पश्चिमी किनारे को फिलिस्तीन और वहाँ कायम फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण (पी.एन.ए) की सरकार को फिलिस्तीनी हितों का एकमात्रा नुमाइंदा बनाने पर तुले अमेरिका का मकसद इसी बहाने इरान को सबक सिखाना है। वह सुन्नी बहुलता वाले अरब मुल्क मिस्र, जार्डन और सऊदी अरब को शिया बहुल इरान के खिलाफ खड़ा करना चाहता है। ईराक के शिया आजादीपसंदों के हाथो मुँह की खाते अमेरिका ने बार-बार कहा है कि इरान ईराक, लेबनान और फिलिस्तीन में शिया अतिवादियों को बढ़ावा दे रहा है।
सुन्नी अरब मुल्क भी इरान के बढ़ते प्रभाव से संशय में हैं- साथ ही वहां के स्वेच्छाचारी शासकों को अमेरिका से दोस्ती गांठने की भी हड़बड़ी है। सुन्नी अरब मुल्कों को साथ लेकर अमेरिका इरान पर चौतरफा घेरा डालना चाहता है। इषराइल 'हमास' और 'फतह' की आपसी जंग का फायदा अलग उठा रहा है। गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे किनारे के कुछ ठिकानों पर उसका
हमला तेज हो गया है। 'हमास' को नेस्तनाबूद करने पर उतारू इषराइल ने गाषापट्टी से लगती अपनी सीमा सील कर दी है। सिर्फ मानव जीवन के लिए बेहद जरूरी चीजें ही यहाँ पहुँच सकती हैं। फैक्ट्रियाँ बंद हैं, कारोबार ठप्प पड़ चुका है। गाजा के 75 प्रतिशत निजी क्षेत्र के कर्मचारी बेरोजगार हो गए हैं।
गाजा में कार्यरत संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारी जॉन जिंग की बात मानें तो गाजा जल्दी ही एक वीराने में तब्दील होने वाला है- अगर घेराबंदी जारी रहती है तो जल्दी ही गाजा की आबादी सिर्फ बाहरी सहायता पर निर्भर आबादी में बदल जाएगी, उसके पास न तो आत्मनिर्भरता का सपना होगा और न ही कामगर कहलाने की गरिमा।
अमेरिकी इशारे पर अब्बास की सरकार भी गाजापट्टी पर कहर ढा रही है। इसने गाजा में कायम अपनी सैन्य अदालतों के अधिकार बढ़ा दिए हैं। अपने गृहमंत्री को आदेश दिया है कि गाजा में सक्रिय गैरसरकारी संगठनों को बंद किया जाय। इसी आपा-धापी में अब्बास ने नए सिरे से चुनाव के आदेश दिए हैं जबकि चुनाव की घोषणा में संसद के सदस्यों की सहमति नहीं ली गई। संसद के 120 सदस्यों में 75 हमास के हैं। इनमें आधे सांसद इषराइल की जेलों में बंद हैं और आधे संसद में नहीं आते।
राष्ट्रपति अब्बास के नेतृत्व वाली फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण की सरकार से पहले गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे पर 'हमास' की सरकार थी। 2006 की जनवरी में 'हमास' की सरकार बनी थी। लोगों में 'फतह' की भूमिका को लेकर संदेह था और वे
उसके भ्रष्टाचार से उकता चुके थे। कहीं न कहीं फिलिस्तीनी जनता यह समझ रही थी कि 'फतह' चंद करोड़पतियों की जमात है जिसका काम स्वायत्ता क्षेत्र में अमरीकी और इषराइली हितों की रखवाली करना है। पश्चिमी मुल्कों ने 2006 के चुनाव परिणामों को मानने से इनकार किया।
'हमास' की सरकार को गिराने के लिए पाबंदियाँ लगीं। इरादा अपने चहेते महमूद अब्बास की सरकार बनवाने का था ताकि इसी बहाने 'हमास' से 'फतह' को लड़वाया जा सके। पश्चिमी मुल्क अपने मकसद में कामयाब हुए। गाजा में 'फतह' और 'हमास' के बीच हफ्रतों तक खूनी लड़ाई चली- आपातकाल की घोषणा हुई और 'फतह' के नियंत्रण वाले पश्चिमी किनारे पर अब्बास की सरकार बनी।
अमेरिका और इजराइल से चूक यह हुई कि वे गाजा में 'हमास' की लोकप्रियता का न तो सही अंदाजा लगा सके और न ही यह आकलन कर सके कि लाख कोशिशों के बावजूद 'हमास' 'फतह' के अमेरिकापरस्त लड़ाकों पर भारी पड़ेगा।
मामला यहीं आकर उलझ जाता है। 'हमास' की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार पश्चिमी मुल्कों को पसंद नहीं क्योंकि 'हमास' अमेरिकापरस्त नहीं है। 'हमास' फिरलिस्तीनियों को पसंद है क्योंकि वह 'फतह' की मुखालफत करता है। 'फतह' फिलिस्तीन की आजादी का मसला अमेरिका के बताए रास्तों पर चलकर हल करना चाहता है। वह इजराइल की हर अपमानजनक शर्त मानने को तैयार है। 'फतह' को यह मानने में तनिक भी हिचक नहीं कि पश्चिमी किनारे पर कब्जाया गया तमाम हिस्सा इजराइल का है अथवा घर छोड़ चुके फिरलिस्तीनियों को अपनी वतन वापसी का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ
'हमास' है, जो ऐसी शर्तें कभी नहीं मानेगा। इसी कारण फिरलिस्तीनियों में वह लोकप्रिय भी है मगर 'हमास' धर्मिक कट्टरपंथ के रास्ते पर चलता है- वह राष्ट्रवाद के एक अतिवादी रूप् का समर्थक है। यहूदीयत का कट्टर विरोधी 'हमास' आतंक और हिंसा को फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद का पहला और आखिरी उपाय मानता है। उसका यह पक्ष बहुत से फिलिस्तीनियों को पसंद नहीं। फिलिस्तीन पर किसका अधिकार है- 'हमास' जैसे कट्टरपंथी जमात का या 'फतह' जैसे अमेरिकापरस्त मगर धर्मनिरपेक्ष धड़े का?
अपने को साम्राज्यवाद के विरोध में खड़े एक इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन के रूप में पेश करने वाले 'हमास' का गठन 1987 में गाजा के शेख अहमद यासिन के हाथ हुआ था। इजराइल और पश्चिमी मुल्कों में 'हमास' की छवि एक खूंखार लड़ाकू की है जिसे न आत्मघाती धमाकों से परहेज है और न ही इषराइली फौजियों और नागरिकों में बिना फर्क किए ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाने से। 1988 में लिखे गए हमास के घोषणापत्र में साफ कहा गया है कि जब तक इषराइल का नाश नहीं होता और मौजूदा इषराइल, पश्चिमी किनारे तथा गाषापट्टी में फिलिस्तीनी इस्लामी राष्ट्र नहीं बन जाता तब तक 'हमास' की जंग जारी रहेगी। हमास की अपनी विचारधारा अगर कोई है तो यही कि यहूदीयत के विरोध पर टिका एक आजाद इस्लामी राष्ट्र फिलिस्तीन बने।
कनाडा, जापान, इषराइल, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन की तो बात ही क्या योरोपीय यूनियन और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे पारराष्ट्रीय संगठनों और जार्डन जैसे पड़ोसी ने भी 'हमास' को आतंकी संगठन का दर्षा दे रखा है। फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के नेता यासर अराफात की मृत्यु के बाद 'हमास' ने संसदीय राजनीति का रास्ता चुना था। गाजा, कलकिलिया, नबलूस के स्थानीय चुनावों में छिटपुट जीत दर्ज करने के बाद 2006 की जनवरी में हमास ने फिलिस्तीनी संसद के चुनाव में हैरतअंगेज जीत दर्ज की। उसे कुल 132 सीटों में 76 सीटें मिलीं जबकि फतह को केवल 43 सीटों से संतोष करना पड़ा। हमास साफ मानता है कि फिलिस्तीन की आजादी का रास्ता जेहाद का रास्ता है और कोई विकल्प नहीं है। फतह के भ्रष्ट और
अकुशल शासन से उकताए फिलिस्तीनियों को हमास का यह बागी तेवर पसंद आता है। वे मानकर चलते हैं कि हमास फिलिस्तीनी हिस्से पर इषराइल के कब्जे और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ आजादी का सशस्त्र संघर्ष चला रहा है। बाकी मुल्क अगर 'हमास' को आतंकी मानते हैं तो खुद फिलिस्तीनी उसे अपनी आजादी के सपनों का चितेरा।
'हमास' की जीत फतह को नहीं पची क्योंकि फतह का पेट पश्चिमी मुल्कों के पैसे से भरता है और दिमाग भी उन्हीं के इशारे पर चलता है। जीत के बाद हमास ने अपनी तरफ से एक तरफा युध्दविराम की घोषणा की। इजराइल को इस साल की अवधि दी कि वह पश्चिमी किनारे, गाजापट्टी और पूर्वी यरूशलम से अपना कब्जा हटा ले। लेकिन इजरायल ने अपना हवाई हमला
रोका और न ही फतह ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी इस सरकार को सत्ताा सौंपी।
हमास के निर्वाचित नुमाइंदों को फतह ने फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राध्किरण (पीएनए) के पदों से चुन-चुन कर हटाया और अपने नुमांइदे बैठाए।
2007 का जून खूनी लड़ाई का महीना साबित हुआ। 'हमास' और फतह में ठन गई। महमूद अब्बास के नेतृत्व में 'हमास' गैरकानूनी करार दिया गया। 'हमास' का कब्जा गाजापट्टी पर बरकरार है। फतह की सरकार पश्चिमी किनारे पर है और इसी पश्चिमी किनारे भर को फिलिस्तीन मानने-मनवाने की कवायद में अमेरिका ने शांति सम्मेलन बुलवाया है। अमेरिका और साथी मुल्कों की नजर में फिलिस्तीन का प्रतिनिधित्व फतह करता है।
'फतह' फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा यानी पीएलओ में शामिल कई सारे दलों में एक दल है भले ही उसका आकार सबसे बड़ा हो। अपने गठन के बाद से उग्रवादी समूह फतह ने भी खड़े किए लेकिन 'हमास' के विपरीत फतह को किसी देश ने आतंकी संगठन का दर्जा नहीं दिया है। यूरोपीय संघ और अमेरिका इसकी भरपूर मदद करते हैं। यह अपने को धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी बताने वाला संगठन है। 1954 में वजूद में आया फतह फिलिस्तीनी आप्रवासियों द्वारा गठित हुआ था। इसने एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक फिलिस्तीन के निर्माण के सपने से अपनी शुरुआत की थी लेकिन मधयपूर्व को साम्राज्यवादी चंगुल से छुड़ाने की जगह यह लगातार अमेरिकी हितों की कठपुतली बनता गया।
'सशस्त्र संघर्ष' और मूलगामी बदलाव के अपने मुहावरे के बावजूद इसकी नीति यही रही कि वह यथास्थिति के बीच सिर्फ फिलिस्तीनियों के लिए किसी तरह एक राष्ट्र हासिल कर ले भले ही मधयपूर्व के देशों पर साम्राज्यवादी हितों का शिंकजा जारी
रहे। फतह का साम्राज्यवाद विरोध 'हमास' की तरह बिला शर्त नहीं था। उसने कभी कामगर तबके के आंदोलन खड़ा नहीं होने दिए। मधयवर्गीय हितों की नुमाइंदगी करते-करते उसकी स्थिति आखिर को पूंजीपरस्त दल की हो गई। राष्ट्र का आंदोलन प्रधान बाकी सारे सवाल पीछे की टेक पर चलते फतह ने नियम बनाया कि वह 'सभी अरब राष्ट्रों से सहयोग' करेगा और मध्यपूर्व के शेष संघर्षों में तटस्थ बना रहेगा।
अरब मुल्कों के शासक तबके और उनके स्वेच्छाचार को भी चुनौती देने से इनकार करने की फतह की यह अदा पश्चिमी मुल्कों को पसंद है। सोवियत संघ के बिखरने के बाद यह तो तय ही हो गया कि मध्यपूर्व में अमेरिकी हितों का बोलबाला रहेगा और क्या ही अच्छा हो अमेरिका के लिए कि खुद जिसका शिकार किया जा रहा है वही कहे कि मेरा शिकार किया जाना मेरी बेहतरी के लिए है। फतह और अब्बास के रूप में अमेरिका को ऐसा शिकार मिल गया है। फिलिस्तीन का प्रतिनिधित्व कौन करता है- बुश-प्रशासन के शांति सम्मेलन का यक्ष प्रश्न यही है। पश्चिमी मुल्कों की सोच से यह चिंता गायब है कि खुद फिलिस्तीनी किसे अपना नुमाईदा मान रहे हैं। हमास की लोकतांत्रिक सरकार को इसी वजह से गिराया गया। गणित एकदम स्पष्ट है-
लोकतंत्र वही जो लोकतंत्र के खुदमुख्तार पहरुए बताएं। अमेरिका और साथी देशों को वही लोकतंत्रा पसंद है जो मधयपूर्व का तेल उनकी बड़ी कंपनियों के ठेके के हवाले करने में देर ना करे, जो धर्मनिरपेक्ष हो, आजादी पसंद भले न हो। पश्चिमी मुल्कों की इस षरूरत को फतह बड़ी खूबी से पूरा करता है।
मध्यपूर्व में लोकतंत्र की चिंता करते देश यह बात भूल जाते हैं कि आत्मनिर्णय लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है और आत्मनिर्णय की जमीन पर खड़ा होने से पहले हर लोकतांत्रिक देश को अपने आप ही से लड़ने में बरसों का सफर तय करना पड़ा है। लोकतंत्र दुनिया को सेंत-मेंट में मिली दौलत नहीं- पूरी उन्नीसवीं सदी खुद योरोप में कभी मजदूरों तो कभी औरतों के खून से लाल हुई तब उन्हें अपने चयन और वरण का अधिकार मिला था। ऐतिहासिक विकास की यह राह फिलिस्तीन में भी चल सकती है बशर्ते अमेरिका और साथी मुल्कों को लोकतंत्र का इतिहास याद हो।

बड़े उद्योगों की बड़ी विडंबना - सुनील

मध्य प्रदेश के रीवा जिले में जेपी. सीमेंट कारखाने के गेट पर 22 सितंबर की सुबह समीप के गांवों के हजार से ज्यादा स्त्री-फरुष-बच्चे वहां अपनी मांग लेकर इकट्ठे हुए। मांगे रखने से पहले ही पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। फिर फैक्टरी प्रबंधन की ओर से गोलियां चली। एक नौजवान मारा गया। सौ के लगभग स्त्री-पुरुष घायल हुए, ज्यादातर घायलों को फैक्टरी के सुरक्षाकर्मियों की बंदूकों के छर्रे लगे थे। पुलिस व प्रबंधन का कहना है कि भीड़ बेकाबू हो गई थी और पथराव कर रही थी।
ग्रामवासियों की दलील है कि उन्हें हुड़दंग ही करना होता, तो स्त्रियां-बच्चें क्यों आते? ग्रामवासियों की मांग थी कि फैक्टरी में उन्हें स्थायी रोजगार दिया जाए। फैक्टरी उनकी जमीन पर बनी है, किंतु उन्हें इसमें रोजगार नहीं मिला। कुछ लोगों को रोजगार मिला, तो वह भी दैनिक मजदूरी पर अस्थायी चौकीदारों के रूप में। चौबीस वर्ष पहले 1983 में कारखाने का शिलान्यास करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने ग्रामवासियों से कहा था कि यह फैक्टरी आपके विकास के लिए है, आप जमीन दो, हम रोजगार देंगे।
कारखाना बनाने और सीमेंट के लिए चूने का पत्थर निकालने के लिए लगभग एक दर्जन गांवों की जमीन ली गई है। लेकिन उन्हें रोजगार नही मिला। ग्रामवासियों की दूसरी समस्या थी खनन तथा सीमेंट कारखाने से निकलने वाली धूल, जो लगभग 25 गांवों की फसलों और स्वास्थ्य को चौपट कर रही है।
खदानों की ब्लास्टिंग से उनके घरों में दरारें आ रही हैं और भूजल नीचे जा रहा है। कई बार ज्ञापन और आंदोलन की चेतावनी
देने पर भी प्रशासन और कंपनी ने कोई धयान नहीं दिया। गौरतलब है कि रीवा की यह कंपनी वही है, जहां कुछ समय पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री की पत्नी के चार डंपर चलने का मामला चर्चा में आया था। यानि जे.पी. कंपनी और मुख्यमंत्री के बीच मधुर नजदीकी संबंध है। जब सैंया भए कोतवाल, तो डर कैसा?
स्थिति की विद्रूपता इससे जाहिर होती है कि जो युवक मारा गया, वह काम करने सूरत जाता था। वह सूरत से लौटा था और आंदोलन में शामिल हो गया। रीवा से सूरत की दूरी एक हजार कि.मी. से कम नहीं होगी। तीन संयंत्रों वाली इतनी बड़ी सीमेंट फैक्टरी होने के बावजूद सबसे नजदीक के गांव के युवाओं को काम की तलाश में एक हजार कि.मी. दूर जाना पड़े, यह आधुनिक औद्योगीकरण की एक गहरी बिडंबना की ओर संकेत करता है।
किसी पिछड़े इलाके में कोई बड़ा कारखाना आता है, तो बेकारी व कंगाली से त्रस्त जनता में उम्मीद जग जाती है कि उनके भी दिन फिरेंगे और उन्हें रोजगार मिलेगा। अक्सर राजनेता भी इसी तरह की उम्मीदें जगाते हैं। लेकिन लगभग हर जगह का अनुभव कमोवेश रीवा जैसा ही है। कुछ व्यापारियों, ठेकेदारों, नेताओं को जरूर फायदा हो जाता है। बड़े कारखानो में कुशल प्रशिक्षित मजदूर व कर्मचारी की जरूरत होती है, जो बाहर से आते हैं। स्थानीय ग्रामवासियों को या तो रोजगार मिलता ही नहीं, या चौकीदार-चपरासी जैसे काम मिलते हैं। गांवों के हिस्से में आता है सिर्पफ विस्थापन, बेकारी और मिट्टी-पानी हवा का प्रदूषण।
बड़े उद्योगों से विकास की उम्मींदें ज्यादातर अनुभव से गलत एवं एक मृग मरीचिका ही साबित हुई हैं। छत्ताीसगढ़ में भिलाई और रायपुर के बिल्कुल बगल के इलाके व जिले आज भी कंगाल बने हुए हैं। झारखण्ड में बोकारो व जमशेदफर और उड़ीसा में राउरकेला व कलिंगनगर-पारादीप के आसपास भी गरीबी की खाई दिन प्रतिदिन गहरा हो रही है। उत्तार प्रदेश और मधय प्रदेश की सीमा पर सिगंरोली का भी वही किस्सा है। आदिवासियों की हालत तो और खराब हो जाती है। स्पष्ट है कि बड़े उद्योगों के जरिए विकास का सपना सपना ही रह गया है, यदि विकास का मतलब उस इलाके के बहुसंख्यक लोगों की बेहतरी से है।
पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं से देश में औद्योगीकरण के बारे में एक बहस छिड़ी है। वाममोर्चा सरकार का कहना है कि पश्चिम बंगाल के विकास के लिए बड़े-बड़े उद्योग और बड़ी कंपनियों को बुलाना जरूरी है। इसी से गांव व खेती के फालतू श्रम को रोजगार दिया जा सकेगा। लगभग सभी पार्टियां और देश के शिक्षित बुध्दिजीवी भी यही मानते हैं। लेकिन सिंगूर-नंदीग्राम के किसानों ने इसे मानने से इंकार कर दिया। अनुभव से उन्हें स्पष्ट हो गया कि खेती की जमीन चले जाने से वे जीविका का एकमात्र सहारा भी खो बैठेंगे। वे न घर के रहेंगे, न घाट के।
दरअसल बड़ी मशीनों व बड़े उद्योगो पर आधरित औद्योगीकरण से रोजगार पैदा नहीं, खत्म होता है। दुनिया में कहीं भी इस प्रकार के औद्योगीकरण से रोजगार की समस्या हल नहीं हुई है। पश्चिम यूरोप में भी औद्योगिक क्रांति के दौरान लाखों लोगों को खेती से बेदखल और बेरोजगार होना पड़ा था। लेकिन वह एक समस्या नहीं बनी, क्योंकि इस बीच उत्तरी-दक्षिणी अमरीका व आस्ट्रेलिया के रूप में 'नई दुनिया' की खोज हो गई थी। यूरोपीय गोरे लोग बड़ी संख्या में वहां चले गए, स्थानीय मूल निवासियों को खत्म कर दिया और वहां के विशाल भूभाग पर कब्जा करके वहीं बस गए। बहुत सारे अंग्रेज भारत जैसे उपनिवेशों पर राज करने आ गए। क्या आज भारत के पास यह विकल्प है? क्या हम यह चाहेंगे।?
भारत के सम्यक एवं समग्र विकास का एक ही विकल्प है। हम छोटे, कुटीर, गांव आधरित, विकेन्द्रित, श्रम-प्रधन उद्योगों पर जोर दें। बड़े कारखानों का मोह छोड़ें। नेहरू-मनमोहन-बुध्ददेव का मॉडल छोड़कर गांधी, लोहिया व शुमाखर की सलाह पर चलें।
यही असली औद्योगीकरण तथा विकास होगा। नहीं तो, रीवा के ग्रामवासियों की तरह जनसाधरण को विकास के नाम पर विस्थापन, बेकारी, प्रदूषण और लाठी-गोली ही मिलती रहेगी।

समाज और परिवार का समायोजन सेतु है - नेतृत्व करती नारी - लोकेन्द्रसिंह कोट

आत्मकेन्द्रण के तलैयो ने जहाँ हमारी संस्कृति को प्रदूषित किया है, वहीं हमारी मानसिकता में भी संकीर्णता की जलकुंभी उग आई है। जिस ताल मेें हम आधुनिकता के कपड़े धोते है, नहाते हैं, बर्तन धोते हैं और उसी कथित आधुनिकता का पानी पीते भी है तो निश्चित रूप से बीमारियाँ तो बढ़ना ही है। हमारे अंदर के पानी ने संस्कारों की बुनियादें कच्ची कर दी हैं। आज लगभग हर बात में तनाव के साथ-साथ विश्वास का संकट समाया हुआ है। ग्रामीण अंचल में लम्बे समय से हाशिए पर रही नारी को जैसे ही मुख्य धारा में पंचायती राज के सहारे लाया गया उनके साथ भी वही विश्लेषकों, नीति निर्धारकों, चिंतकों का विश्वास ड़गमगाया हुआ था। लेकिन प्रारंभिक हिचकिचाहट के पश्चात आज उसी विश्वास को बनाए रखने में सक्षम सिध्द हुई हैं।
जहाँ एक ओर आ रही जबरन आधुनिकता, स्वच्छंदता व गुमराह स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है, वहीं आज की नेतृत्व करती नारी परिवार के तारों को आधुनिकता तथा संस्कृति के मध्य समायोजन कर बाँधने का प्रयास कर रही है। सिहोर जिले की कुर्लीकलां ग्राम पंचायत की सरपंच मैनबाई घर-घर जाती हैं, सबसे बातें करती हैं और इसी के चलते उन्हौने गांव पंचायत के विभिन्न वर्ग के लोगों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। लोगों की सामाजिक और निजी समस्याओं को धेर्यपूर्वक सुनना और फिर उनके हल की दिशा में सार्थक प्रयास करना, वहाँ के लोगों को भी लगता है कि वे एक नारी हैं इसलिए इस मुकाम पर वे पुरूषों से बेहतर सामजस्य बैठा पाती हैं। मैनबाई स्वयं बहुत ही गरीब आदिवासी परिवार से संबध्द हैं और पंचायत के चारो गांवों, कुर्लीकलां, नांजीपुर, काेंड़कपुरा और निमावड़ा के गरीबों की व्यथा समझते हुए उस दिशा में जीतोड़ प्रयास करती हैं।
समाज में नारी द्वारा किया गया विवेकशील व्यवहार समाज को न केवल श्रेष्ठता के रूप में दृढ़ आधार देता है, विभिन्न सामाजिक अंतर्विरोधों को समायोजित करते हुए संतुलित करता है, वरन् भविष्य को भी समरसता की नींव प्रदान करता है। यह नारी ही है जो इन दिनों समाज में विभिन्न संगठनों में होने वाले विमर्श/तर्क-वितर्क/वाद-विवाद को अपने ढ़ंग से ही संयोजित करती है और नवीन समाज की रचना में अपना अमूल्य योगदान देती है। होशंगाबाद जिले की बयावड़ा ग्राम पंचायत की सरपंच वैशाली परिहार एम. एससी और एल.एल.बी. की शिक्षा प्राप्त हैं तथा महिलाओं की समस्याओं को लेकर उन्हौने सराहनीय कार्य किए हैं। पंचायत की लगभग 117 एकड़ जमीन को वे ग्रामीण बाजार, मछली पालन, लघु उद्योग आदि लगाने का सोच रही हैं। उनकी निगाह में गांव में ही रोजगार उपलब्ध करवाकर शहरों की ओर होने वाले प्रव्रजनों को रोकना है।
अक्सर हम कुछ नहीं तो हर बात के लिए पश्चिम को कोस रहे होते हैं, परन्तु पश्चिम में अभी भी सब कुछ अपनी जगह बनाए हुए हैं। सिनेमा के आ जाने से नाटक कला नहीं खत्म हो गयी। टी.वी. ने सिनेमा को नहीं हड़प लिया, इलेक्ट््रानिक मीडिया ने किताबों सहित सारे प्रिंट मीडिया को निकाल बाहर नहीं किया और न ही आधुनिकता ने पुरानी संस्कृति को जार-जार नहीं किया। दरअसल, वहाँ हर चीज एक विकास क्रम में आई और संस्कार बनकर एक खास जरूरत की हैसियत से जीवन में शामिल हो गई। हर नई चीज का पुरानी चीजों के साथ समायोजन हो गया। जबकि हमारे यहाँ हर नई चीज भड़भड़ाते हुए पुरानी चीजों को रौंदती-कुचलती आई। नतीजतन हड़कंप मचता रहा। वर्तमान परिदृश्य वस्तुत: भारतीय संस्कृति का क्षरण काल है, जहाँ कर्मनिष्ठा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों में बेतहाशा गिरावट आई है। धर्म को विदू्रप बनाकर, विश्वास की दीवारों को हिलाकर, भौतिकतावाद की बढ़ती आग के तले सभी को उपभोक्तावादी सोच में उलझाकर विषयनिष्ठा से जोड़ दिया है। ऐसे में आज फिर नारी के उस योगदान की आशा प्रासंगिक हो गई है जहाँ से समायोजन का सेतु बाँधा जा सकता है।
अब मीरादेवी मिश्र को ही लीजिए। वे कोनिया कोठार ग्राम पंचायत जिला सतना की सरपंच हैं और प्रारंभ में उनकी पंचायत सचिव से नहीं बनती थी लेकिन अपनी व्यवहार कुशलता से उन्हौने सचिव को पक्ष में कर लिया और विकास के कई कार्यों को अंजाम दिया। जैसे ही छुआछूत की बात आती है तो वे स्वयं ब्राम्हण होकर भी कहती हैं, ''मैं कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में जाती हूँ और सभी वर्ग की महिलाओं के साथ बैठकर खाना-पीना करती हँ...... वर्ग भेद बनाया हुआ है और समय के साथ मिटता जाएगा।'' मीरादेवी ने इसी बात को अपने कर्मों में भी उतारा है और हरिजन बस्ती की सड़क, चबूतरे बनवाए। इसी तरह रोहाना ग्राम पंचायत की पंच रामवती भी कहती है, ''एक दलित के रूप में मुझे लोगों द्वारा नजरअंदाज किए जाने की आदत थी, लेकिन जब से मैं निर्वाचित हुई हूँ, अब वही लोग मुझसे अदब से बात करते हैं, ईश्वर ने मुझे नई राह दिखाई है और मैं भी जितना कार्य हो सकेगा उतना करूंगी और आगे मैं भी सरपंच बनना चा हूँगी।''
जिस प्रकार भोजन में संतुलन आवश्यक होता है उसी तरह हमारी महत्वाकांक्षाओं में भी संतुलन आवश्यक है, वरना अजीर्ण होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। नारी अपने प्रयासों से अपने परिवार की इन महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने का कार्य पूर्ण समझ के साथ कर सकती हैं। क्योंकि उसे सारे मसालों में संतुलन बखुबी आता है। वे ही विवेकानंद के इस नारे को सार्थक कर सकती हैं, 'उठो, जागो और उद्देश्य की प्राप्ति होने तक मत रूको।' बकसरी बाई विश्वकर्मा, नाहली ग्राम पंचायत जिला हरदा की सरपंच हैं और उनका मानना है कि वे सिर्फ इसलिए चुनाव जीत पाई क्योंकि उनके परिवार की छवि ईमानदार, योग्यतासम्पन्न और हमदर्द की थी। आज भी समाज में इन बातों के मूल्यों का जनमानस में प्रभाव है और जैसे ही विकल्प मिलता है समाज स्वयं उन्हे मुख्य धारा में लाने के प्रयास करता है। पंचायत की दूसरी महिलाओं को वे अपना उदाहरण देते हुए कहती हैं कि ''पहले मैं भी बहुत हिचकती थी, परंतु मुझे एहसास हो गया कि अगर डर हावी हो गया तो मैं कुछ भी नहीं कर पाउँगी'' और इसी के चलते पंचायत की सभाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ी है।
कुल मिलाकर नेतृत्व करती नारी को समाज की बेहतरी के लिए बहना होगा नदी की तरह। सामाजिक समागम, आपसी समझ का विचार, समस्याओं के मूल में जाने की प्रवृति, आत्मविश्लेषण, धैर्य...इन सभी छोटी-छोटी नदियों को जिस तरह से उन्हे अपनी नदी में प्रवेश दिया है वह आज अपने परिणाम दिखा रहा है। ऐसा नहीं है कि विचारगत अंतर नहीं होंगे, समस्याएँ नहीं होंगी, वे भी होंगी...नदी के दो किनारे कहाँ मिलते है एक-दूसरे से.....फिर भी, वे साथ-साथ चलते हैं, एक दूसरे के समानांतर। विभिन्न नदियों में व्याप्त अधकचरेपन की सफाई और उनके आधुनिकता के उथलेपन को मिटाने के लिए मुहीम नारी को ही मुखिया बन कर चलानी होगी तथा उन्हें अपने व समाज के जीवन में भी उतारना होगा.... ताकि हम जीवन की इस दौड़ में अधकचरे न रह जायें। बकौल शायर, ''डाले गए पत्थर इस वास्ते आगे/ठोकर से अगर होश संभल जाए तो अच्छा।''

मुख्य धारा से जुड़ने के लिए संघर्ष कर रही हैं- आदिवासी महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

इन दिनों मध्यप्रदेश अपने अस्तित्व का 50वाँ राज्योत्सव मना रहा है। मध्यप्रदेश का अतीत जितना गौरवशाली था उतना ही वर्तमान और भविष्य। अपने गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और लोक कलाओं से मध्यप्रदेश का इतिहास विभिन्न सभ्यताओं की कहानी है। वर्तमान 50 वर्षों में मध्यप्रदेश ने संस्कृति और लोक कलाओं को देश और विश्वव्यापी बनाया। उन्हें परिष्कृत किया तो उन्हें उनके सीमित क्षेत्रों से निकाल कर जन-जन तक पहुँचाया। देश के किसी राज्य में इतनी विविध न तो धरोहर है, न ही कला और संस्कृति। सबसे बड़ी बात कि इनमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं। अपनी अलग-अलग विशिष्टताएँ और समाज की उन्हें जानने-पहचानने की ललक। प्रदेश सर्वाधिक आदिवासी जनसंख्या के लिए भी जाना जाता है और आदिवासियों में भी गोंड़ आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है।

महात्मा गाँधी ने स्वतंत्र भारत में एक मज़बूत पंचायत राज शासन पध्दति का स्वप्न संजोया था जिसमें शासन कार्य की प्रथम इकाई पंचायतें हाेंगी। उनकी कल्पना पंचायतों की शासन व्यवस्था की धुरी होने के साथ ही आत्मनिर्भर, पूर्णतया स्वायत्त और स्वावलम्बी होने की थी। स्वतंत्रता के पश्चात् महात्मा गाँधी की इस परिकल्पना को साकार करने के लिए समय-समय पर प्रयास किए गए। कभी ग्रामीण विकास के नाम पर और कभी सामूदायिक विकास योजनाओं के माध्यम से पंचायतों को लोकतंत्र का आधार मज़बूत बनाने के लिए उपयोग किया जाता रहा। लेकिन प्रदेश में लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण करके बुनियादी स्तर पर पंचायत राज की स्थापना और जनता के हाथ सीधे अधिकार देने की शुरूआत संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से सम्भव हुई। वर्तमान में सफलतापूर्वक तीसरी पारी खेल रहा मध्यप्रदेश महिलाओं को तैतीस प्रतिशत आरक्षण से आगे लाने के साथ ही अब सीधे-सीधे पचास प्रतिशत आरक्षण कर महिलाओं को उनके बराबरी के हक 'आधा आसमां हमारा' को दिलवाने का सराहनीय प्रयास किया है।

अभी भी कहा यह जाता है कि तमाम प्रयासों के पश्चात भी विकास की इस दौड़ में अक्सर हमारी आदिवासी महिलाएँ पिछड़ जाती हैं और मुख्य धारा से कटे रह जाते हैं। ऐसे में उनसे नेतृत्व कर सकने की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहा है। इसके कारणों एवं यथास्थिति को जानने के लिए लेखक ने आदिवासी बहुल जिले मंडला और बालाघाट चुने और क्षेत्र के दौरे के पश्चात स्थितियों में बदलाव की आहट को सुना।

दोनों जिलों में गोंड़ और बैगा जनजातियाँ ही प्रमुखता से पाई जाती हैं और इनमें से भी बैगा जतजाति को केन्द्र से विशेष दर्जा प्राप्त है। प्रकृति की पूजा-आराधना करने वाली इन जनजातियों में अपनी परम्परा, अपने संस्कार, अपना संगीत, अपने आचार-विचार हैं और यही उन्हे दूसरों से अलग करते हुए अपना संसार रचने में मदद देते हैं। मंड़ला जिले की बिछिया तहसील की खटिया पंचायत की महिला सरपंच सुखवती बाई के रहन-सहन को देखकर यह साबित भी होता है। वे मूलत: गोंड़ हैं और उनका गाँव बैगा बहुल है। वे दूसरी बार सरपंच चुनी गई हैं। यह उस आपसी सामजस्य को दर्शाता है तो जो दूसरे वर्गों में धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वर्गवाद तेजी से उभर कर नासूर बनता जा रहा है। पंचायती राज की तीन पारियों में से पहली और तीसरी पारी की वे साक्षी रही हैं और दोनों पारियों में अन्तर के बारे में पूछने पर सहर्ष कहती हैं, ''पहली बार तो ज्यादा कुछ नहीं समझ में आया था और ज्यादा कुछ करने को भी नहीं था, लेकिन अब अनुभव भी हो गया है और जनता के लिए करने को भी बहुत कुछ है।''

कक्षा 8 तक पढ़ी सुखवती ने नौ महिलाओं को पछाड़ते हुए तीन गांव की सरपंची हासिल की थी और उनकी पंचायत में चार महिला पंच भी हैं और वे भी उन्हे सहयोग देती हैं। उन्हौने पिछले ढाई-तीन साल में तीन तालाब, तीन कुएँ और लगभग साढे तीन किलोमीटर सड़क के साथ ही साथ रोजगार गारंटी योजना के तहत 473 लोगों को सौ दिनों का रोजगार मुहैया करवाया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।''

पूछने पर सुखवती देश के प्रधानमंत्री का नाम तो नहीं बता पाती हैं लेकिन मुख्यमंत्री के नाम से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। पंचायत में समाचार पत्र भी आते हैं और सबसे बड़ी बात देखने में आई कि उनके पति उनके किन्ही कार्यों में कोई दखल नहीं देते पाए गए। वे तो कहती हैं, 'परिवार के सहयोग के बगैर इतना करना मुश्किल है, लेकिन कोई भी अपनी मर्जी मुझ पर नहीं थोपता है।'' यह पूछने पर कि महिला होने के नाते महिला समस्या निपटाने में उन्हौने क्या किया तो वे कई उदाहरण सामने रखते हुए कहती हैं, ''पंचायत की लड़कियों को शिक्षा के लिए विभिन्न योजनाओं का लाभ दिलवाने के अलावा सर्पदंश से एक व्यक्ति की मौत हो जाने पर उसकी विधवा हिरंती बाई को कम से कम समय में ही विवेकानंद बीमा योजना के तहत पचास हजार, राष्ट््रीय परिवार सहायता योजना से दस हजार और राजस्व दुर्घटना सहायता राशि पचास हजार, कुल मिलाकर एक लाख दस हजार की सहायता दिलवाई तो मैं जीवन में इतना खुश कभी नहीं हुई।''

इसी क्रम में बालाघाट जिले की हट्टा ग्राम पंचायत में एक और गोंड़ आदिवासी नायिका ने तो पंचायती राज में एक अलग ही तरह से परचम फहरा रखा है। लगातार तीन पारियों से सरपंच बन रही भगलो बाई पुरूषों को हराकर अपने पद पर काबिज हुई हैं। तीन गांवों को मिलाकर बनी पंचायत की 'सरदार' भगलो बाई स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं हैं और दंभगता से कहती हैं, ''पढे-लिखो ने अच्छाईयों की जगह बुराईयों को ज्यादा अपनाया है।'' यह उनका अपना विश्वास है लेकिन वे शिक्षा के मुद्दे पर कुछ नहीं करती ऐया नहीं है। उनकी खुद की संताने पढ़ी-लिखी हैं और पंचायत में भी शिक्षा और विशेषकर बालिका शिक्षा के लिए उन्हौने विशेष कार्य किए हैं। उनसे जब यह पूछा गया कि अपनी पहल परी और अब इस तीसरी पारी में कितना फर्क महसूस करती हैं तो एक सेनापति की तरह वे कहती हैं, ''फर्क तो आया है, और भारी फर्क आया है। पहली बार सब कुछ सहमते हुए करते थे, दस बातों से डरते थे, झिझकते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। आत्मविश्वास हो गया है, आखिर समय तो लगता ही है.....।''

यदि भगलोबाई की अंतिम पक्ति 'आखिर समय तो लगता ही है.....' को सूत्र वाक्य बनाया जाय तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने का धुंधलका हटता हुआ प्रतीत होता है। सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर तुरंत बदलाव की आशा करना हमारे अधिकांश विश्लेषकों, नीति निर्धारकों की आदत सी है और यह वाक्य उनके लिए कड़ा प्रत्युत्तर है। यह हमारे समाज शास्त्र की भी सही ढंग़ से व्याख्या करता है जो कि विविधता लिए हुए है। इसी विविधता के आयाम को नया स्वर देती सोनाबाई उइके हैं, जनपद सदस्य है मंडला जिले के मोगा ब्लॉक की और गोंड़ आदिवासी हैं। वे कक्षा दसवीं तक पढ़ी हैं। पति, सास और जेठ जो कि मीडिल स्कूल में अध्यापक हैं का भरपूर सहयोग पाकर सोनाबाई अभीभूत तो हैं ही साथ ही उन्हे एक संबल मानती है।

मोबाईल हाथ में लिए वे बेरोकटोक 38 गांवों की जनपद में होने वाली सभाओं में भाग लेती हैं, महिला मंडल के गठन में सक्रिय भूमिका अदा करती हैं और शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रति जागरूक रहते हुए कहती हैं, ''हम चाहते हैं कि हरेक को अपना हक मिले चाहे वह वृध्दावस्था पेंशन योजना हो, राष्ट्रीय परिवार सहायता योजना हो, सर्व शिक्षा अभियान हो या फिर बालिका शिक्षा के लिए कार्य हों....।'' वे स्वयं वन स्थाई समिति की सभापति भी हैं और स्वास्थ्य के लिए चलाई जाने वाली सेवा भारती योजना पर भी निगरानी रखती है। उनके पति खेती करते है और यह पूछने पर कि उन्हे कैसा लगता है, उनकी पत्नी के उच्च पदस्थ होने पर तो वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, ''सच पूछिए तो बहुत अच्छा लगता है कि कोई तो परिवार का नाम रोशन कर रहा है....'' और सास तो बिल्कुल निहाल होकर कहती है, ''उसके आने के बाद पूरे घर की स्थितियाँ बदल गई है और जब वह गरीबों को काम दिलवाती है तो मन में बहुत संतोष होता है।''
पंचायतों में ही न्याय करने की प्राचीन परम्परा और अपनी व्यवस्थाओं को चलाने वाले आदिवासी आज समय की नब्ज को पकड़ चुके हैं। गांवों की स्थितियों में भी अच्छा-खासा बदलाव आया है। कई समस्याएँ अभी भी विद्यमान हैं लेकिन वह समय की मांग भर करती नजर आती है। आदिवासियों को भी अपनी कई अंधविश्वासी परम्पराओं से बाहर निकलने में समय लग रहा है लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि महिलाओं को लेकर यह क्षेत्र कहीं अधिक संवेदनशील और आश्चर्यजनक रूप से प्रगतीशील है।

पंचायतो में महिलाओं की भागीदारी से: बदलाव की आहट सुनाई देती है - लोकेन्द्रसिंह कोट

लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई हैं पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। प्राचीन समय से लेकर महात्मा गांधी के समय तक पंचायत की बात प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से होती रही है। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई जो कई कारणों से असफल सिध्द हुई। इस एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन पर अभी तक हाशिए पर रही महिलाओं को इसमे 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया।

इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएँ आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था लेकिन, बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा। कागजों पर ऑंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया।

महिला जनप्रतिधियों के पुरूष रिश्तेदार ही अधिकांश जगहों पर शासन करते रहे और महिलाओं को वहीं पर्दे के पीछे रखा गया। ताजा अध्ययन बताते हैं कि लगभग आधे से ज्यादा जगहों पर ऐसा खुले तौर पर हो रहा है। और-तो-और ग्रामीण समाज ने भी इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। इन्ही सब कार्यकलापों के चलते एक तथ्य और उभर कर आया कि महिला जनप्रतिनिधियों के कंधों पर बंदूकें रख कर उनके पुरुष रिश्तेदारों ने भ्रष्टाचार प्रारंभ कर दिया और कहने, सुनने, पढ़ने को यह हो गया कि कई महिला जनप्रतिनिधियों के विरुध्द भी भ्रष्टाचार के मुद्दे चल रहे हैं।

यहाँ पर एक गंभीर भूल यह भी हो रही है कि पर्दे के पीछे रहने वाली एक निरक्षर ग्रामीण महिला को लोकतंत्र की इस निचली पाठशाला से यही सीखने को मिल रहा है कि पंचायत या सत्ता धन कमाने का एक स्त्रोत भर है। भविष्य में इसे मानसिकता बनते देर नहीं लगेगी, और हम फिर से पंचायती राज की असफलता का कारण और कहीें खोजने बैठेंगे। वास्तव में ग्रामीण महिलाओं की पंचायतों में भागीदारी को तो अपना लिया गया लेकिन, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को मूल में जाकर नहीं देखा गया। महिलाओं को एक पूर्व निर्धारित ढ़ाँचे में फिट कर दिया गया, बगैर यह देखे कि क्या अनुकूल और क्या प्रतिकूल परिस्थितियाँ हैं। जबकि होना यह था कि इन ग्रामीण महिलाओं के ढाँचे में व्यवस्थाओं को फिट होना था। इसके पश्चात् कई शिकायतें जो हम कर पर रहे है, वे नहीं होती।

अब हम उदाहरण लेते हैं शिक्षा का ही। शिक्षा की कमी उनके आत्म-विकास और आत्म-सम्मान में सबसे बाधक रही है। यद्यपि पिछले पाँच दशकों में महिला साक्षरता कई गुना बढ़ी है फिर भी उनमें शिक्षा का स्तर निम्न है। इसके साथ ही यह भी तथ्य और जुड़ जाता है कि सिर्फ साक्षर होने भर से ही महिलाओं को जागरूक होना आ जाएगा, हमेशा सही नहीं होगा। साक्षर महिला जनप्रतिनिधियों को लेकर किये गये एक अध्ययन के अनुसार अभी भी वे 'महिला समस्या' को नहीं समझ पाई है, उनमें महिला विकास जैसा कोई चिंतन ही नही हैं।

ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि लगभग पचपन से साठ प्रतिशत महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार होती है। इसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि महिलाएँ जहँा एक ओर लड़के व लड़की में विभेद की मानसिकता के साथ तमाम पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, रीतिरिवाज निभाते हुए तमाम जिम्मेदारियाँ वहन करती हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के घर में उन्हें दमन चक्र के रूप में अत्याचार झेलने पड़ते हैं। ऐसे में महिलाओं से आशा करना कि वे पंचायत के कार्यों एवं उनकी समस्याओं के लिए लड़े तो यह सर्वथा बेमानी ही होगा।

इसे हम एक विडम्बना ही कहेंगे कि जहाँ हम महिला उत्थान और उनकी सत्ता में भागीदारी के लिए लड़ते रहे, वहीं उसी के समानान्तर पुरूष और महिलाओं के अनुपात में देशव्यापी गिरावट आती गई। 972 प्रति हजार पुरूष से घटकर यह स्थिति 934 प्रति हजार पुरूष तक पहँच चुकी है। ऐसे में कभी-कभी लगता है कि दबाव के चलते सब कुछ अपना रहे हैं परन्तु मन से महिलाओं को आगे बढ़ना हम अपना नहीं पा रहे हैं। कुछ जागरूक महिला सरपंचों द्वारा लिये गए निर्णयों (चाहे वे कितने ही अच्छे क्यों न हो) पर सरेआम पुरूष साथियों द्वारा नहीं माना गया। कई स्थानों पर महिलाओं को तरह-तरह से अपमानित किया जाना हमारी उसी पुरूष आधारित मानसिकता का परिचायक है।
वैसे देखा जाए तो ग्रामीण महिलाएँ जब अपने घरेलू कार्यों के साथ-साथ कृषि कार्यों को भी सही प्रबंधन कर निपटा लेती हैं तथा अपने बच्चों का भी पालन-पोषण कर लेती हैं तो ऐसी कुशल प्रबंधक को पंचायत का पोषण करने में कहाँ समस्या आ सकती है। वे अपने उद्देश्यों के प्रति अपने संस्कारों की वजह से अधिक प्रतिवध्द, ईमानदार और उत्साही रहती हैं। जरूरत इस बात की है कि संपूर्ण व्यवस्था उनके पक्ष को लेकर पुर्नव्यवस्थित हो और पारिवारिक सहमती उसमें शामिल हो। हमें पंचायती राज में महिलाआें की भागीदारी के बारह-तेरह वर्षों बाद अनुभवों को महत्व देते हुए प्रत्येक पहलू की पुर्नव्यवस्था करना होगी।

मुद्दे-स्तम्भकार